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१४८] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[ १, ६, ३०६. ___ एगजीवं पडुच्च जहण्णेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो, अंतोमुहुत्तं ॥ ३०६॥
एवं पि सुगमं । उक्कस्सेण वे अट्ठारस सागरोवमाणि सादिरेयाणि ॥ ३०७ ॥
तं जहा- वे सासणा तेउ-पम्मलेस्सिया सादिरेय-वे-अट्ठारससागरोवमाउद्विदिएसु देवेसु उववण्णा । एगसमयमच्छिय विदियसमए मिच्छत्तं गंतूगंतरिदा। अवसाणे वे वि उवसमसम्मत्तं पडिवण्णा । पुणो सासणं गंतूण विदियसमए मदा। एवं सादिरेय-वे-अट्ठारससागरोवमाणि दुसमऊणाणि सासणुक्कस्संतरं होदि । एवं सम्मामिच्छादिहिस्स वि । णवरि छहि अंतोमुहुत्तेहि ऊणियाओ उत्तद्विदीओ अंतरं ।।
संजदासंजद-पमत्त-अप्पमत्तसंजदाणमंतरं केवचिरंकालादो होदि, णाणेगजीवं पडुच्च णत्थि अंतरं, णिरंतरं ॥ ३०८ ॥
उक्त जीवोंका एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर क्रमशः पल्योपमके असंख्यातवें भाग और अन्तर्मुहूर्त है ।। ३०६ ॥
यह सूत्र भी सुगम है।
उक्त जीवोंका एक जीवकी अपेक्षा उत्कृष्ट अन्तर क्रमशः साधिक दो सागरोपम और अट्ठारह सागरोपम है ॥ ३०७॥
जैसे- तेज और पद्म लेश्यावाले दो सासादनसम्यग्दृष्टि जीव साधिक दो सागरोपम और साधिक अट्ठारह सागरोपमकी आयुस्थितिवाले देवों में उत्पन्न हुए । वहां एक समय रहकर दूसरे समयमें मिथ्यात्वको जाकर अन्तरको प्राप्त हुए। आयुके अन्तमें दोनों ही उपशमसम्यक्त्वको प्राप्त हुए। पश्चात् सासादनगुणस्थानको जाकर दूसरे समयमें मरे । इस प्रकार दो समय कम साधिक दो सागरोपम और साधिक अट्ठारह सागरोपम उक्त दोनों लेश्यावाले सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंका उत्कृष्ट अन्तर होता है। इसी प्रकार उक्त दोनों लेश्यावाले सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंका भी अन्तर जानना चाहिए। विशेषता यह है कि इनके छह अन्तर्मुहूतौसे कम अपनी उक्त स्थितियोंप्रमाण अन्तर होता है।
तेज और पद्म लेश्यावाले संयतासंयत, प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत जीवोंका अन्तर कितने काल होता है ? नाना और एक जीवकी अपेक्षा अन्तर नहीं है, निरन्तर है ॥ ३०८॥
१ एकजीवं प्रति जघन्येन पल्योपमासंख्येयभागोऽन्तर्मुहूर्तश्च । स. सि. १,८. २ उत्कर्षेण द्वे सागरोपमे अष्टादश च सागरोपमाणि सातिरेकाणि । स. सि. १, ८. ३ संयतासंयतप्रमत्ताप्रमत्तसंयतानां नानाजीवापेक्षया एकजीवापेक्षया च नास्त्यन्तरम् । स. सि. १,८.
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