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________________ अंतराणुगमे सुक्कलेस्सिय-अंतरपरूवणं कुदो ? णाणाजीवपवाहयोच्छेदाभावा । एगजीवस्स वि, लेस्सद्धादो गुणद्धाए बहुत्तुवदेसा । सुक्कलेस्सिएसु मिच्छादिट्टि-असंजदसम्मादिट्ठीणमंतरं केवचिरं कालादो होदि, णाणाजीवं पडुच्च णत्थि अंतरं, णिरंतरं ॥३०९ ॥ सुगममेदं । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतोमुहुत्तं ॥ ३१० ॥ तं जहा- वे देवा मिच्छादिट्ठि-सम्मादिट्ठिणो सुक्कलेस्सिया गुणंतरं गंतूण जहण्णेण कालेण अप्पिदगुणं पडिवण्णा । लद्धमंतोमुहुत्तमंतरं ।। उक्कस्सेण एक्कत्तीसं सागरोवमाणि देसूणाणि ॥३११ ॥ तं जहा- वे जीवा सुक्कलेस्सिया मिच्छादिट्ठी दवलिंगिणो एक्कत्तीससागरोवमिएसु देवेसु उववण्णा । छहि पज्जत्तीहि पज्जत्तयदा (१) विस्संता (२) विसुद्धा (३) सम्मत्तं पडिवण्णा । तत्थेगो मिच्छत्तं गंतूगंतरिदो (४) अवरो सम्मत्तेणेव । अवसाणे क्योंकि, उक्त गुणस्थानवाले नाना जीवोंके प्रवाहका कभी विच्छेद नहीं होता है । तथा एक जीवकी अपेक्षा भी अन्तर नहीं है, क्योंकि, लेश्याके कालसे गुणस्थानका काल बहुत होता है, ऐसा उपदेश पाया जाता है। शुक्ललेश्यावालोंमें मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि जीवोंका अन्तर कितने काल होता है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर नहीं है, निरन्तर है ॥ ३०९॥ यह सूत्र सुगम है। उक्त जीवोंका एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है ॥३१० ॥ जैसे- शुक्ललेझ्यावाले मिथ्यादृष्टि और सम्यग्दृष्टि दो देव अन्य गुणस्थानको जाकर जघन्य कालसे विवक्षित गुणस्थानको प्राप्त हुए। इस प्रकार अन्तर्मुहूर्त कालप्रमाण अन्तर लब्ध होगया। उक्त जीवोंका एक जीवकी अपेक्षा उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम इकतीस सागरोपम है ॥३११॥ जैसे- शुक्ललेश्यावाले दो मिथ्यादृष्टि द्रव्यलिंगी जीव इकतीस सागरोपमकी स्थितिवाले देवोंमें उत्पन्न हुए। छहों पर्याप्तियोंसे पर्याप्त हो (१) विश्राम ले (२) विशुद्ध हो (३) सम्यक्त्वको प्राप्त हुए। उनमेंसे एक मिथ्यात्वको जाकर अन्तरको १ शुक्ललेश्येषु मिथ्यादृष्टयसंयतसम्यग्दृष्टयो नाजीवापेक्षया नास्त्यन्तरम् । स. सि. १, ८. २ एकजीवं प्रति जघन्येनान्तर्मुहूर्तः। स. सि. १, ८. ३ उत्कर्षेणैकत्रिंशत्सागरोपमाणि देशोनानि । स. सि. १,८. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001399
Book TitleShatkhandagama Pustak 05
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages481
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size9 MB
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