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________________ [८५ १, ६, १४७.] अंतराणुगमे तसकाइय-अंतरपरूवणं खविय अप्पमत्तो होद्ग पमत्तो जादो (३) लद्धमंतरं । भूओ अप्पमत्तो (४)। उवरि छ अंतोमुहुत्ता । एवं अट्ठहि वस्सेहि दसहि अंतोमुहुत्तेहि य ऊणा तस-तसपज्जत्तद्विदी उक्कस्संतरं । अप्पमत्तस्स उच्चदे- एक्को थावरट्ठिदिमच्छिदो मणुसेसु उबवण्णो गम्भादिअट्टवस्सेण उवसमसम्मत्तमप्पमत्तगुणं च जुगवं पडिवण्णो (१)। अंतरिदो सगढिदि परिभमिय पच्छिमे भवे मणुसो जादो । सम्मत्तं पडिवण्णो दंसणमोहणीयं खविय अंतोमुहुत्तावसेसे संसारे विमुद्धो अप्पमत्तो जादो (२) । लद्धमंतरं । तदो पमत्तो (३) अप्पमत्तो (४) । उवरि छ अंतोमुहुत्ता । एवमट्टहि वस्सेहि दसहि अंतोमुहुत्तेहि य ऊणिया तसतसपञ्जत्तहिदी उक्कस्संतरं । चदुण्हमुवसामगाणमंतरं केवचिरं कालादो होदि, णाणाजीवं पडुच्च ओघं ॥ १४६॥ मुगममेदं । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतोमुहुत्तं ॥ १४७ ॥ क्षय करके अप्रमत्तसंयत हो प्रमत्तसंयत हुआ (३)। इस प्रकार अन्तर लब्ध हो गया। पुनः अप्रमत्तसंयत हुआ (४)। इनमें ऊपरके छह अन्तर्मुहूर्त और मिलाये । इस प्रकार दश अन्तर्मुहूर्त और आठ वर्षांसे कम त्रस और सपर्याप्तककी उत्कृष्ट स्थिति ही उन प्रमत्तसंयत जीवोंका उत्कृष्ट अन्तर है। त्रसकायिक और त्रसकायिकपर्याप्त अप्रमत्तसंयतका उत्कृष्ट अन्तर कहते हैंस्थावरकायकी स्थितिमें विद्यमान कोई एक जीव मनुष्यों में उत्पन्न हुआ और गर्भको आदि ले आठ वर्षसे उपशमसम्यक्त्व और अप्रमत्त गुणस्थानको एक साथ प्राप्त हुआ (१)। पश्चात् अन्तरको प्राप्त हो अपनी स्थितिप्रमाण परिभ्रमणकर अन्तिम भवमें मनुष्य हुआ। सम्यक्त्वको प्राप्त कर पुनः दर्शनमोहनीयका क्षय कर संसारके अन्तर्मुहूर्त अवशिष्ट रह जानेपर विशुद्ध हो अप्रमत्तसंयत हुआ (२)। इस प्रकार अन्तर लब्ध हो गया। तत्पश्चात् प्रमत्तसंयत (३) और अप्रमत्तसंयत हुआ (४)। इनमें ऊपरके क्षपकश्रेणीसम्बन्धी छह अन्तर्मुहूर्त और मिलाये । इस प्रकार आठ वर्ष और दश अन्तर्मुहूतोंसे कम अस और असपर्याप्तकोंकी उत्कृष्ट स्थिति ही उन अप्रमत्तसंयत जीवोंका उत्कृष्ट अन्तर है। त्रसकायिक और त्रसकायिकपर्याप्तक चारों उपशामकोंका अन्तर कितने काल होता है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा ओघके समान अन्तर है ॥ १४६ ॥ यह सूत्र सुगम है। चारों उपशामकोंका एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है॥१४७॥ १ चतुर्णामुपशमकानां नानाजीवापेक्षया सामान्यवत् । स. सि. १, ८. २ एकजीवं प्रति जघन्येनान्तर्मुहूर्तः । स. सि. १, ८. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001399
Book TitleShatkhandagama Pustak 05
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages481
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size9 MB
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