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________________ छक्खडागमे जीवाणं [ १, ६, १४५. संजदासंजदस्स उच्चदे- एक्को एइंदियट्ठिदिमच्छिदो सष्णिपंचिदियपञ्जत्तएसु उववण्णो । असणिसम्मुच्छिमपज्जत्तएस किण्ण उप्पादिदो ? ण, तत्थ संजमासंजम - गहणाभावा । तिणिपक्ख-तिष्णिदिवसेहि अंतोमुहुत्तेण य पढमसम्मत्तं संजमा संजमं च जुगवं पडिवण्णा ( १ ) । पढमसम्मत्तद्धाए छावलियाओ अस्थि त्ति सासणं गदो । अंतरिदो मिच्छत्तं गंतूण सगट्ठिदिं परिभमिय पच्छिमे तसभवे सम्मत्तं घेत्तूण दंसणमोहणीयं खविय अंतोमुहुत्तावसेसे संसारे संजमा संजमं पडिवण्णो ( ३ ) । लद्धमंतरं । अप्पमत्तो ( ४ ) पत्तो ( ५ ) अप्पमत्तो ( ६ ) । उवरि खवगसेढिम्हि छ मुहुत्ता । एवं बारस अतोमुहुत्ताहिय अङ्केतालीस दिवसेहि ऊणिया तस-तसपज्जतट्ठिदी संजदासंजदुक्कस्संतरं । ८४ ] पमत्तस्स उच्चदे- एक्को एइंदियट्ठिदिमच्छिदो मणुसेसु उववण्णो । गब्भादिअट्ठवस्त्रेण उवसमसम्मत्तमप्पमत्तगुणं च जुगवं पडिवण्णो (१) पमत्तो (२) हेड्डा परिवदिय अंतरदो । सगट्ठिदिं परिभमिय अपच्छिमे भवे सम्मादिट्ठी मणुसो जादो | दंसणमोहणीयं xe और seपर्याप्तक संयतासंयतका उत्कृष्ट अन्तर कहते हैं- एकेन्द्रिय जीवों की स्थिति में स्थित कोई एक जीव संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्तकोंमें उत्पन्न हुआ । शंका-उक्त जीवको असंज्ञी सम्मूच्छिम पर्याप्तकों में क्यों नहीं उत्पन्न कराया ? समाधान- नहीं, क्योंकि, उनमें संयमासंयमके ग्रहण करनेका अभाव है। पुनः उत्पन्न होनेके पश्चात् तीन पक्ष, तीन दिवस और अन्तर्मुहूर्तसे प्रथमोपशमसम्यक्त्व और संयमासंयमको एक साथ प्राप्त हुआ (१) । प्रथमोपशसम्यक्त्वके कालमें छह आवलियां शेष रहने पर सासादन गुणस्थानको गया और अन्तरको प्राप्त हो मिथ्यात्वमें जाकर अपनी स्थितिप्रमाण परिभ्रमण करके अन्तिम त्रसभवमें सम्यक्त्वको ग्रहणकर और दर्शनमोहनीयका क्षय कर अन्तर्मुहूर्तप्रमाण संसारके अवशिष्ट रहने पर संयमासंयमको प्राप्त हुआ (३) । इस प्रकार अन्तर लब्ध हुआ । पश्चात् अप्रमत्तसंयत (४) प्रमत्तसंयत (५) और अप्रमत्तसंयत ( ६ ) हुआ । इनमें क्षपकश्रेणीसम्बन्धी ऊपरके छह अन्तर्मुहूर्त और मिलाये । इस प्रकार बारह अन्तर्मुहूर्तोसे अधिक अड़तालीस दिनोंसे कम स और सपर्याप्तकोंकी उत्कृष्ट स्थिति ही उन संयतासंयत जीवोंका उत्कृष्ट अन्तर है । कायिक और त्रसकायिकपर्याप्त प्रमत्तसंयतका उत्कृष्ट अन्तर कहते हैंएकेन्द्रिय स्थितिको प्राप्त कोई एक जीव मनुष्योंमें उत्पन्न हुआ और गर्भको आदि ले आठ वर्षके पश्चात् उपशमसम्यक्त्व और अप्रमत्त गुणस्थानको एक साथ प्राप्त हुआ (१) । पश्चात् प्रमत्तसंयत हो ( २ ) नीचे गिर कर अन्तरको प्राप्त हुआ । अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण परिभ्रमण करके अन्तिम भवमें सम्यग्दृष्टि मनुष्य हुआ । पुनः दर्शनमोहनीयका Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001399
Book TitleShatkhandagama Pustak 05
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages481
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size9 MB
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