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________________ १, ६, १४५.] अंतराणुगमे तसकाइय-अंतरपरूवणं [८३ एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतोमुहुत्तं ॥ १४४ ॥ एवं पि सुगमं । उक्कस्सेण वे सागरोवमसहस्साणि पुवकोडिपुधत्तेणभहियाणि, वे सागरोवमसहस्साणि देसूणाणि ॥ १४५ ॥ असंजदसम्मादिद्विस्स उच्चदे- एको एइंदियट्ठिदिमच्छिदो असण्णिपंचिंदियसम्मुच्छिमपज्जत्तएसु उववण्णो । पंचहि पज्जतीहि एज्जत्तयदा (१) विस्संतो (२) विसुद्धो (३) भवणवासिय-वाण-तरदेवेसु आउअं बंधिय (४) विस्संतो (५) कालं करिय भवणवासिएसु वाणवेंतरेसु वा देवेसु उववण्णो । छहि पज्जतीहि पज्जत्तयदो (६) विस्संतो (७) विसुद्धो (८) उवसमसम्मत्तं पडिवण्णो (९)। उबसमसम्मत्तद्धाए छावलियावसेसाए आसाणं गदो । अंतरिदो मिच्छत्तं गंतूण सगढिदिं परिभमिय अंते उवसमसम्मत्तं पडिवण्णो (१०) । लद्धमंतरं । पुणो सासणं गदो आवलियाए असंखेजदिभागं कालमच्छिदूण एइदिएमु उववण्णा । दसहि अंतीमुहुत्तेहि ऊणिया तस-तसपज्जत्तहिदी उक्कस्संतरं । उक्त जीवोंका एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है ॥ १४४ ॥ यह सूत्र भी सुगम है। उक्त असंयतादि चारों गुणस्थानवर्ती त्रस और सपर्याप्त जीवोंका उत्कृष्ट अन्तर पूर्वकोटिपृथक्त्वसे अधिक दो सहस्रसागरोपम और कुछ कम दो सहस्र सागरोपम है ।। १४५ ॥ इनमें से पहले त्रस और सपर्याप्तक असंयतसम्यग्दृष्टिका उत्कृष्ट अन्तर कहते हैं- एकेन्द्रियस्थितिको प्राप्त कोई एक जीव असंज्ञो पंचेन्द्रिय सम्मूच्छिम पर्याप्तक जीवों में उत्पन्न हुआ। पांचों पर्याप्तियोंसे पर्याप्त हो (१) विश्राम ले (२) विशुद्ध हो (३) भवनवासी या वानव्यन्तर देवोंमें आयुको बांधकर (४) विश्राम ले (५) काल कर भवनवासी या वानव्यन्तर देवों में उत्पन्न हुआ। छहों पर्याप्तियोंसे पर्याप्त हो (६) विश्राम ले (७) विशुद्ध हो (८) उपशमसम्यक्त्वको प्राप्त हुआ (९)। उपशमसम्यक्त्वके कालमें छह आवलियां अवशेष रहने पर सासादनगुणस्थानको गया और अन्तरको प्राप्त हो मिथ्यात्वमें जाकर अपनी स्थितिप्रमाण परिभ्रमणकर अन्तमें उपशमसम्यक्त्वको प्राप्त हुआ (१०)। इस प्रकार अन्तर लब्ध हुआ। पुनः सासादनगुणस्थानको जाकर वहां आवलीके असंख्यातवें भागप्रमाण कालतक रहकर एकेन्द्रियोंमें उत्पन्न हुआ। इस प्रकार इन दश अन्तर्मुहूतौसे कम त्रस और असपर्याप्तककी उत्कृष्ट स्थिति उन्हींके असंयतसम्यग्दृष्टि जीवोंका उत्कृष्ट अन्तर है। ... १. उत्कर्षेण द्वे सागरोपमसहस्र पूर्वकोटीपृथक्त्वैरभ्यधिके । स. सि. १, ८. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001399
Book TitleShatkhandagama Pustak 05
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages481
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size9 MB
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