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छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[१, ६, १४८. एदं पि सुगम ।
उक्कस्सेण वे सागरोवमसहस्साणि पुव्वकोडिपुधत्तेणब्भहियाणि, वे सागरोवमसहस्साणि देसूणाणि ॥ १४८ ॥
जधा पंचिंदियमग्गणाए चदुण्हमुवसामगाणमंतरपरूवणा परूविदा, तधा एत्थ वि णिरवयवा परूवेदव्या।
चदुण्हं खवा अजोगिकेवली ओघं ॥ १४९ ॥ सुगममेदं। सजोगिकेवली ओघं ॥ १५० ॥ एवं पि सुगमं । तसकाइयअपज्जत्ताणं पंचिंदियअपज्जत्तभंगो ॥ १५१ ॥
कुदो? णाणाजीव पडुच्च णत्थि अंतरं, एगजीवं पडुच्च जहण्णेण खुद्दाभवग्गहणं, उक्कस्सेण अणंतकालमसंखेज्जपोग्गलपरियट्टमिच्चेएहि पंचिंदियअपज्जत्तेहिंतो तसकाइयअपज्जत्ताणं भेदाभावा ।
यह सूत्र भी सुगम है।
उक्त जीवोंका एक जीवकी अपेक्षा उत्कृष्ट अन्तर क्रमशः पूर्वकोटिपृथक्त्वसे अधिक दो सहस्र सागरोपम तथा कुछ कम दो सहस्र सागरोपम है ॥ १४८॥
जिस प्रकारसे पंचेन्द्रियमार्गणामें चारों उपशामकोंकी अन्तरप्ररूपणा प्ररूपित की है, उसी प्रकार यहांपर भी सामस्त्यरूपसे अविकल प्ररूपणा करना चाहिए।
चारों क्षपक और अयोगिकेवलीका अन्तर ओघके समान है ॥ १४९ ।। यह सूत्र सुगम है। सयोगिकेवलीका अन्तर ओघके समान है ॥१५० ॥ यह सूत्र भी सुगम है।
त्रसकायिक लब्ध्यपर्याप्तकोंका अन्तर पंचेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तकोंके अन्तरके समान है ॥ १५१॥
क्योंकि, नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर नहीं है, एक जीवकी अपेक्षा जघन्यसे क्षुद्रभवग्रहणप्रमाण, उत्कर्षसे अनन्तकालात्मक असंख्यात पुद्गलपरिवर्तन है; इस प्रकार पंचेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तकोसे त्रसकायिक लब्ध्यपर्याप्तकोंके अन्तरमें कोई भेद नहीं है।
१ उत्कर्षेण द्वे सागरोपमसहस्र पूर्वकोटीपृथक्वैरभ्यधिके । स. सि. १, ८. २शेषाणां पंचेन्द्रियवत् । स. सि. १,८.
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