SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 176
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ८६] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, ६, १४८. एदं पि सुगम । उक्कस्सेण वे सागरोवमसहस्साणि पुव्वकोडिपुधत्तेणब्भहियाणि, वे सागरोवमसहस्साणि देसूणाणि ॥ १४८ ॥ जधा पंचिंदियमग्गणाए चदुण्हमुवसामगाणमंतरपरूवणा परूविदा, तधा एत्थ वि णिरवयवा परूवेदव्या। चदुण्हं खवा अजोगिकेवली ओघं ॥ १४९ ॥ सुगममेदं। सजोगिकेवली ओघं ॥ १५० ॥ एवं पि सुगमं । तसकाइयअपज्जत्ताणं पंचिंदियअपज्जत्तभंगो ॥ १५१ ॥ कुदो? णाणाजीव पडुच्च णत्थि अंतरं, एगजीवं पडुच्च जहण्णेण खुद्दाभवग्गहणं, उक्कस्सेण अणंतकालमसंखेज्जपोग्गलपरियट्टमिच्चेएहि पंचिंदियअपज्जत्तेहिंतो तसकाइयअपज्जत्ताणं भेदाभावा । यह सूत्र भी सुगम है। उक्त जीवोंका एक जीवकी अपेक्षा उत्कृष्ट अन्तर क्रमशः पूर्वकोटिपृथक्त्वसे अधिक दो सहस्र सागरोपम तथा कुछ कम दो सहस्र सागरोपम है ॥ १४८॥ जिस प्रकारसे पंचेन्द्रियमार्गणामें चारों उपशामकोंकी अन्तरप्ररूपणा प्ररूपित की है, उसी प्रकार यहांपर भी सामस्त्यरूपसे अविकल प्ररूपणा करना चाहिए। चारों क्षपक और अयोगिकेवलीका अन्तर ओघके समान है ॥ १४९ ।। यह सूत्र सुगम है। सयोगिकेवलीका अन्तर ओघके समान है ॥१५० ॥ यह सूत्र भी सुगम है। त्रसकायिक लब्ध्यपर्याप्तकोंका अन्तर पंचेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तकोंके अन्तरके समान है ॥ १५१॥ क्योंकि, नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर नहीं है, एक जीवकी अपेक्षा जघन्यसे क्षुद्रभवग्रहणप्रमाण, उत्कर्षसे अनन्तकालात्मक असंख्यात पुद्गलपरिवर्तन है; इस प्रकार पंचेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तकोसे त्रसकायिक लब्ध्यपर्याप्तकोंके अन्तरमें कोई भेद नहीं है। १ उत्कर्षेण द्वे सागरोपमसहस्र पूर्वकोटीपृथक्वैरभ्यधिके । स. सि. १, ८. २शेषाणां पंचेन्द्रियवत् । स. सि. १,८. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001399
Book TitleShatkhandagama Pustak 05
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages481
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy