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१, ६, २९७.] अंतराणुगमे किण्ह-णील-काउलेस्सिय-अंतरपरूवणं १.४३
अचक्खुदंसणीसु मिच्छादिहिप्पहुडि जाव खीणकसायवीदरागछदुमत्था ओघं ॥ २९३ ॥
कुदो ? ओघादो भेदाभावा ।
ओधिदसणी ओधिणाणिभंगों ॥ २९४ ॥ केवलदसणी केवलणाणिभंगो ॥ २९५ ॥ एदाणि दो वि सुत्ताणि सुगमाणि ।
एवं दंसणमग्गणा समत्ता । लेस्साणुवादेण किण्हलेस्सिय-णीललेस्सिय-काउलेस्सिएसु मिच्छादिहि-असंजदसम्मादिट्ठीणमंतरं केवचिरं कालादो होदि, णाणाजीवं पडुच्च णत्थि अंतरं, णिरंतरं ॥ २९६ ॥
सुगममेदं । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतोमुहुत्तं ॥ २९७ ॥
अचक्षुदर्शनियोंमें मिथ्यादृष्टिसे लेकर क्षीणकपायवीतरागछद्मस्थ गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवी जीवोंका अन्तर ओघके समान है ॥ २९३ ॥
क्योंकि, ओघसे इनके अन्तरमें कोई भेद नहीं है। अवधिदर्शनी जीवोंका अन्तर अवधिज्ञानियोंके समान है ॥ २९४ ॥ केवलदर्शनी जीवोंका अन्तर केवलज्ञानियोंके समान है ॥ २९५ ॥ ये दोनों ही सूत्र सुगम हैं।
इस प्रकार दर्शनमार्गणा समाप्त हुई। लेश्यामार्गणाके अनुवादसे कृष्णलेश्या, नीललेश्या और कापोत लेश्यावालोंमें मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि जीवोंका अन्तर कितने काल होता है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर नहीं है, निरन्तर है ।। २९६ ॥
यह सूत्र सुगम है। उक्त जीवोंका एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है ॥२९७॥ . .' १ अचक्षुर्दर्शनिषु मिथ्यादृष्टयादिक्षीणकषायान्तानां सामान्योक्तमन्तरम् । स. सि. १, ८.. २ अवधिदर्शनिनोऽवधिज्ञानिवत् । स. सि.१, ८. ३ केवलदर्शनिनः केवलज्ञानिवत् । स. सि. १,८.
४ लेश्यानुवादेन कृष्णनीलकापोतलेश्येषु मिथ्यादृष्टयसंयतसम्यग्दृष्ट यो नाजीवापेक्षया नास्त्यन्तरम् । स. सि. १,८.
... ५. एकजीवं,प्रति जघन्येनान्तर्मुहूर्तः । स..सि. १,.८,
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