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१४.] छंक्खडागमे जीवट्ठाणं
[१, ६, २९८. तं जहा- सत्तम-पंचम-पढमपुढविमिच्छादिट्ठि-असंजदसम्मादिट्ठिणो किण्ह-णीलकाउलेस्सिया अण्णगुणं गंतूण थोवकालेण पडिणियत्तिय तं चेव गुणमागदा । लद्धं दोहं जहण्णंतरं ।
उक्कस्सेण तेत्तीसं सत्तारस सत्त सागरोवमाणि देसूणाणि ॥२९८ ॥
तं जहा- तिण्णि मिच्छादिद्विणो किण्ह-णील-काउलेस्सिया सत्तम-पंचम-तदियपुढवीसु कमेण उबवण्णा । छहि पज्जत्तीहि पज्जत्तयदा (१) विस्संता (२) विसुद्धा (३) सम्मत्तं पडिवण्णा अंतरिदा अवसाणे मिच्छत्तं गदा । लद्धमंतरं (४)। मदा मणुसेसु उववण्णा । णवारि सत्तमपुढवीणेरइओ तिरिक्खाउअंबंधिय (५) विस्समिय (६) तिरिक्खेसु उववज्जदि त्ति घेत्तव्यं । एवं छ-चदु-चदुअंतोमुहुत्तेहि ऊणाणि तेत्तीससत्तारस-सत्त-सागरोवमाणि किण्ह-णील-काउलेस्सियमिच्छादिविउक्कस्संतरं होदि । एवमसंजदसम्मादिहिस्स वि वत्तव्यं । णवरि अट्ठ-पंच-पंचअंतोमुहुत्तेहि ऊणाणि तेत्तीस-सत्तारस
जैसे- सातवीं पृथिवीके कृष्णलेश्यावाले, पांचवीं पृथिवीके नीललेझ्यावाले और प्रथम पृथिवीके कापोतलेश्यावाले मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि नारकी जीव अन्य गुणस्थानको जाकर अल्प कालसे ही लौटकर उसी गुणस्थानको प्राप्त हुए। इस प्रकार दोनों गुणस्थानोंका जघन्य अन्तर लब्ध हुआ।
उक्त जीवोंका एक जीवकी अपेक्षा उत्कृष्ट अन्तर क्रमशः कुछ कम तेतीस, सत्तरह और सात सागरोपम है ॥ २९८ ॥
जैसे- कृष्ण, नील और कापोत लेश्यावाले तीन मिथ्यादृष्टि जीव क्रमसे सातवीं, पांचवीं और तीसरी पृथिवीमें उत्पन्न हुए । छहों पर्याप्तियोंसे पर्याप्त हो (१) विश्राम ले (२) विशुद्ध हो (३) सम्यक्त्वको प्राप्त कर अन्तरको प्राप्त हो आयुके अन्त में मिथ्यात्वको प्राप्त हुए । इस प्रकार अन्तर लब्ध हुआ (४)। पश्चात् मरण कर मनुष्योंमें उत्पन्न हुए । विशेषता यह है कि सातवीं पृथिवीका नारकी तिर्यंच आयुको बांध कर (५) विश्राम ले (६) तिर्यंचोंमें उत्पन्न होता है, ऐसा अर्थ ग्रहण करना चाहिए । इस प्रकार छह अन्तर्मुहूतौसे कम तेतीस सागरोपम कृष्णलेश्याका उत्कृष्ट अन्तर है। चार अन्तमुंहतोंसे कम सत्तरह सागरोपम नीललेश्याका उत्कृष्ट अन्तर है। तथा चार अन्तर्मुहूतोंसे कम सात सागरोपम कापोतलेश्याका उत्कृष्ट अन्तर होता है। इसी प्रकार असंयतसम्यग्दृष्टिका भी अन्तर कहना चाहिए । विशेषता यह है कि कृष्णलेश्यावाले असंयतसम्यग्दृष्टिका उत्कृष्ट अन्तर आठ अन्तर्मुहूतौसे कम तेतीस सागरोपम, नीललेश्यावाले असंयतसम्यग्दृष्टिका उत्कृष्ट अन्तर पांच अन्तर्मुहूतौसे कम सत्तरह
१उत्कर्षेण त्रयस्त्रिंशत्सप्तदशसप्तसागरोपमाणि देशोनानि । स. सि. १,८.
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