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________________ [२५ १, ६, २६.] अंतराणुगमे णेरइय-अंतरपरूवणं एगजीवं पडुच्च जहण्णेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो, अंतोमुहुत्तं ॥ २६ ॥ तं जहा- 'जहा उद्देसो तहा णिद्देसो' ति णायादो सासणस्स पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो, सम्मामिच्छाइट्ठिस्स अंतोमुहुत्तं जहण्णंतरं होदि । दोहं णिदरिसणंएक्को णेरइओ अणादियमिच्छादिट्ठी उवसमसम्मत्तप्पाओग्गसादियमिच्छादिट्ठी वा तिष्णि करणाणि कादूण उवसमसम्मत्तं पडिवणो । उवसमसम्मत्तेण केत्तियं हि कालमच्छिय आसाणं गंतूण मिच्छत्तं गदो अंतरिदो । पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्तकालेण उव्वेलणखंडएहि सम्मत्त-सम्मामिच्छत्तद्विदीओ सागरोवमपुधत्तादो हेट्ठा करिय पुणो तिण्णि करणाणि कादण उवसमसम्मत्तं पडिवज्जिय उवसमसम्मत्तद्धाए छावलियावसेसाए आसाणं गदो । लद्धमंतरं पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो। एक्को सम्मामिच्छादिट्ठी मिच्छत्तं सम्मत्तं वा गंतूणतोमुहुत्तमंतरिय पुणो सम्मामिच्छत्तं पडिवण्णो । लद्धमंतोमुहुत्तमंतरं सम्मामिच्छादिहिस्स । उक्त दोनों गुणस्थानोंका जघन्य अन्तर एक जीवकी अपेक्षा पल्योपमका असंख्यातवां भाग और अन्तर्मुहुर्त है ॥ २६ ॥ जैसे- जैसा उद्देश होता है, उसी प्रकारका निर्देश होता है, इस न्यायके अनुसार सासादनसम्यग्दृष्टिका जघन्य अन्तर पत्योपमका असंख्यातवां भाग, और सम्यग्मिथ्याष्टिका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। अब क्रमशः सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि, इन दोनों गुणस्थानोंके अन्तरका उदादरण कहते हैं- एक अनादि मिथ्यादृष्टि नारकी जीव अथवा उपशमसम्यक्त्यके प्रायोग्य सादि मिथ्यादृष्टि जीव, तीनों करणोंको करके उपशमसम्यक्त्वको प्राप्त हुआ और उपशमसम्यक्त्वके साथ कितने ही काल रहकर पनः सासादन गणस्थानको जाकर मिथ्यात्वको प्राप्त हुआ। इस प्रकार अन्तरको प्राप्त होकर पल्योपमके असंख्यातवें भागमात्र कालसे उद्धेलना- कांडकोंसे सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व, इन दोनों प्रकृतियोंकी स्थितिओंको सागरोपमपृथक्त्वसे नीचे अर्थात् कम करके पुनः तीनों करण करके और उपशमसम्यक्त्वका प्राप्त करके उपशमसम्यक्त्वके कालमें छह आवली काल अवशेष रह जाने पर सासादन गुणस्थानको प्राप्त हुआ। इस प्रकार पल्योपमके असंख्यातवें भाग प्रमाण अन्तरकाल उपलब्ध होगया। एक सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीव मिथ्यात्वको अथवा सम्यक्त्वको प्राप्त होकर और वहां पर अन्तर्मुहूर्तका अन्तर देकर पुनः सम्यग्मिथ्यात्वको प्राप्त हुआ। इस प्रकार सम्यग्मिथ्यादृष्टिका अन्तर्मुहूर्तप्रमाण अन्तर लब्ध होगया। १एकजीवं प्रति जघन्येन पल्योपमासंख्येयभागोऽन्तर्मुहुर्तश्च । स. सि. १,८. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001399
Book TitleShatkhandagama Pustak 05
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages481
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size9 MB
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