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________________ २४ ] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, ६, २४. सासणसम्मादिहि-सम्मामिच्छादिट्ठीणमंतरं केवचिरं कालादो होदि, णाणाजीवं पडुच्च जहण्णेण एगसमयं ॥ २४ ॥ तं जहा- णिरयगदीए द्विदसासणसम्मादिट्ठिणो सम्मामिच्छादिविणो च सव्वे गुणंतरं गदा। दो वि गुणट्ठाणाणि एगसमयमंतरिदाणि । पुणो विदियसमए के वि उवसमसम्मादिट्ठिणो आसाणं गदा, मिच्छादिट्टिणो असंजदसम्मादिट्ठिणो च सम्मामिच्छत्तं पडिवण्णा । लद्धमंतरं दोण्हं गुणट्ठाणाणमेगसमओ । उक्कस्सेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागों ॥ २५ ॥ तं जहा- णिरयगदीए द्विदसासणसम्मादिट्ठिणो सम्मामिच्छादिट्ठिणो च सव्वे अण्णगुणं गदा । दोण्णि वि गुणट्ठाणाणि अंतरिदाणि। उक्कस्सेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्तो दोण्हं गुणहाणाणमंतरकालो होदि । पुणो तेत्तियमेत्तकाले वदिक्ते अप्पप्पणो कारणीभूदगुणट्ठाणेहिंतो दोण्हं गुणट्ठाणाणं संभवे जादे लद्धमुक्कस्संतरं पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो । सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि नारकियोंका अन्तर कितने काल होता है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्यसे एक समय अन्तर होता है ॥ २४ ॥ जैसे- नरकगतिमें स्थित सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि सभी जीव अन्य गुणस्थानको प्राप्त हुए, और दोनों ही गुणस्थान एक समयके लिए अन्तरको प्राप्त होगये । पुनः द्वितीय समयमें कितने ही उपशमसम्यग्दृष्टि नारकी जीव सासादन गुणस्थानको प्राप्त हुए और मिथ्यादृष्टि तथा असंयतसम्यग्दृष्टि नारकी जीव सम्यग्मिथ्यात्व गुणस्थानको प्राप्त हुए। इस प्रकार दोनों ही गुणस्थानोंका अन्तर एक समय प्रमाण लब्ध होगया। उक्त दोनों गुणस्थानोंका उत्कृष्ट अन्तर पल्योपमके असंख्यातवें भाग है ॥२५॥ जैसे- नरकगतिमें स्थित सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि, ये सभी जीव अन्य गुणस्थानको प्राप्त हुए और दोनों ही गुणस्थान अन्तरको प्राप्त होगये । इन दोनों गुणस्थानोंका अन्तरकाल उत्कर्षसे पल्योपमके असंख्यातवें भागमात्र होता है। पुनः उतना काल व्यतीत होनेपर अपने अपने कारणभूत गुणस्थानोंसे उक्त दोनों गुणस्थानोंके संभव होजानेपर पल्योपमका असंख्यातवां भागप्रमाण उत्कृष्ट अन्तर लब्ध होगया। १ सासादनसम्यग्दृष्टिसभ्यग्मिथ्यादृष्टयो नाजीवापेक्षया जघन्येनैकः समयः । स. सि. १, ८. २ उत्कर्षेण पल्योपमासंख्येयभागाः । स. सि. १, ८. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001399
Book TitleShatkhandagama Pustak 05
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages481
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size9 MB
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