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________________ छक्खंडागमे जीवद्वाणं उक्कस्सेण तेत्तीस सागरोवमाणि देसुसाणि ॥ २७ ॥ तं जधा - एको सादिओ अणादिओ वा मिच्छादिट्ठी सत्तमपुढवीणेरइएस उबवण्णो छहि पज्जतीहि पज्जत्तयदो ( १ ) विस्तो ( २ ) विसुद्धो (३) उवसमसम्मत्तं पडवणो ( ४ ) आसाणं गंतून मिच्छत्तं गदो अंतरिदो । अवसाणे तिरिक्खाउअं बंधिय विसुद्ध होण उवसमसम्मत्तं पडिवण्णो। उवसमसम्मत्तद्धाए एगसमयावसेसाए आसाणं गदो । लद्धमंतरं । तदो मिच्छत्तं गंतूग अंतोमुहुत्तमच्छिय (५) उवट्टिदो | एवं पंचहि अंतोमुहुत्तेहि समयाहिएहि ऊणाणि तेत्तीस सागरोवमाणि सासणुक्कस्संतरं होदि । २६ ] सम्मामिच्छादिस्सि उच्चदे- एक्को तिरिक्खो मणुसो वा अट्ठावीस संतकम्मिओ सत्तमपुढवणेरइएस उववण्णो छहि पज्जतीहि पज्जत्तयदो ( १ ) विस्संतो ( २ ) विसुद्ध ( ३ ) सम्मामिच्छत्तं पडिवण्णो ( ४ ) । पुणो सम्मत्तं मिच्छत्तं वा गंतूण देसूणतेत्तीसाउट्ठिदिमंतरिय मिच्छत्तेणाउअं बंधिय विस्समिय सम्मामिच्छत्तं गदो ( ५ ) | तदो मिच्छत्तं गतूण अंतोमुहुत्तमच्छिय ( ६ ) उवट्टिदो । छहि अंतोमुहुत्तेहि ऊणाणि तेत्तीस सागरोवमाणि सम्मामिच्छतुक्कस्संतरं होदि । [ १, ६, २७. सम्यग्मिथ्यादृष्टिका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागरोपम काल है ||२७|| जैसे- एक सादि अथवा अनादि मिथ्यादृष्टि जीव सातवीं पृथिवीके नारकियोंमें उत्पन्न हुआ। छहों पर्याशियोंसे पर्याप्त होकर (१) विश्राम ले (२) विशुद्ध हो (३) उपशमसम्यक्त्वको प्राप्त हुआ (४) । पुनः सासादन गुणस्थानमें जाकर मिथ्यात्वको प्राप्त हो, अन्तरको प्राप्त हुआ । आयुके अन्तमें तिर्यंच आयुको बांधकर विशुद्ध हो उपशमसम्यक्त्वको प्राप्त हुआ । पुनः उपशमसम्यक्त्वके कालमें एक समय अवशेष रहने पर सासादन गुणस्थानको प्राप्त हुआ । इस प्रकार अन्तर प्राप्त हुआ । पुनः मिथ्यात्वको जाकर अन्तर्मुहूर्त रह ( ५ ) निकला। इस प्रकार समयाधिक पांच अन्तर्मुहूर्तोंसे कम तेतीस सागरोपमकाल सासादन गुणस्थानका उत्कृष्ट अन्तर है । अब सम्यग्मिथ्यादृष्टिका उत्कृष्ट अन्तर कहते हैं - मोहकर्मकी अट्ठाईस प्रकृतियोंकी सत्ता रखनेवाला एक तिर्यच अथवा मनुष्य सातवीं पृथिवीके नारकियोंमें उत्पन्न होकर छहों पर्याप्तियोंसे पर्याप्त हो (१) विश्राम ले (२) विशुद्ध हो (३) सम्यग्मिथ्यात्वको प्राप्त हुआ (४) । पुनः सम्यक्त्वको अथवा मिथ्यात्वको जाकर देशोन तेतीस सागरोपमप्रमाण आयुस्थितिको अन्तररूपसे विताकर मिथ्यात्वके द्वारा आयुको बांधकर विश्राम ले सम्यग्मिथ्यात्वको प्राप्त हुआ (५) । पश्चात् मिथ्यात्वको प्राप्त होकर अन्तर्मुहूर्त रहकर (६) निकला। इस प्रकार छह अन्तर्मुहूर्तोंसे कम तेतीस सागरोपमकाल सम्यग्मिथ्यात्वका उत्कृष्ट अन्तर होता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001399
Book TitleShatkhandagama Pustak 05
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages481
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size9 MB
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