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________________ ७६] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [ १, ६, १२४. - एक्को एइंदियट्टिदिमच्छिदो मणुसेसु उववण्णो । गम्भादिअट्ठवस्सेहि विसुद्धो उवसमसम्मत्तमप्पमत्तगुणं च जुगवं पडिवण्णो अंतोमुहुत्तेण (१) वेदगसम्मत्तं गदो। तदो अंतोमुहुत्तेण (२) अणंताणुबंधी विसंजोजिय (३) विस्समिय (४) दंसणमोहणीयमुवसमिय (५) पमत्तापमत्तपरावत्तसहस्सं कादूण (६) उवसमसेढीपाओग्गअप्पमत्तो जादो (७) । अपुरो (८) अणियट्टी (९) सुहुमो (१०) उवसंतो (११) सुहुमो (१२) अणियट्टी (१३) अपुल्यो (१४)। हेट्ठा ओदरिदूण पंचिंदियट्ठिदि परिभमिय पच्छिमे भवे मणुसेसु उववण्णो । दसणमोहणीयं खविय अंतोमुहुत्तावसेसे संसारे विसुद्धो अप्पमत्तो जादो । पुणो पमत्तापमत्तपरावत्तसहस्सं कादण उवसमसेढीपाओग्गअप्पमत्तो होदूण अपुव्बउवसामगो जादो । लद्धमंतरं (१५)। तदो अणियट्टी (१६) सुहुमो (१७) उवसंतकसाओ (१८) सुहुमो (१९) अणियट्टी (२०) अपुरो (२१) अप्पमत्तो (२२) पमत्तो (२३) अप्पमत्तो (२४) । उवरि छ अंतोमुहुत्ता । एवं अट्ठहि वस्सेहि तीसहि अंतोमुहुत्तेहि ऊणिया सगढिदी अपुव्वुक्कस्संतरं । एवं चेव तिण्हमुवसामगाणं वत्तव्यं । णवरि अट्ठावीसछन्वीस-चदुवीसअंतोमुहुत्तेहि अब्भहियअवस्सूणा सगढिदी अंतरं होदि । एकेन्द्रिय-स्थितिमें स्थित एक जीव, मनुष्यों में उत्पन्न हुआ। गर्भादि आठ वर्षांसे विशुद्ध हो उपशमसम्यक्त्वको और अप्रमत्तगुणस्थानको युगपत् प्राप्त होता हुआ अन्तमुहूर्तसे (१) वेदकसम्यक्त्वको प्राप्त हुआ। पश्चात् अन्तर्मुहूर्तसे (२) अनन्तानुबन्धी कषायचतुष्कका विसंयोजन करके (३) विश्राम ले (४) दर्शनमोहनीयका उपशम कर (५) प्रमत्त-अप्रमत्तगुणस्थानसम्बन्धी परावर्तन-सहस्रोंको करके (६) उपशमश्रेणीके प्रायोग्य अप्रमत्तसंयत हुआ (७)। पश्चात् अपूर्वकरणसंयत (८) अनिवृत्तिकरणसंयत (९) सूक्ष्मसाम्परायसंयत (१०) उपशान्तकषाय (११) सूक्ष्मसाम्पराय (१२) अनिवृत्तिकरणसंयत (१३) अपूर्वकरणसंयत (१४) हो, नीचे उतरकर पंचेन्द्रियकी स्थितिप्रमाण परिभ्रमणकर अन्तिम भवमें मनुष्योंमें उत्पन्न हुआ। पश्चात् दर्शनमोहनीयका क्षयकर संसारके अन्तर्मुहूर्तमात्र अवशेष रहनेपर विशुद्ध हो अप्रमत्तसंयत हुआ। पुनः प्रमत्तअप्रमत्तपरावर्तन-सहनोंको करके उपशमश्रेणीके योग्य अप्रमत्तसंयत होकर अपूर्वकरण उपशामक हुआ। इस प्रकार अन्तर लब्ध हुआ (१५) । पश्चात् अनिवृत्तिकरणसंयत (१६) सूक्ष्मसाम्परायसंयत (१७) उपशान्तकषाय (१८) सूक्ष्मसाम्परायसंयत (१९) अनिवृत्तिकरणसंयत (२०) अपूर्वकरणसंयत (२१) अप्रमत्तसंयत (२२) प्रमत्तसंयत (२३) और अप्रमत्तसंयत हुआ (२४)। इसके ऊपर क्षपकश्रेणीसम्बन्धी छह अन्तर्मुहूर्त होते हैं। इस प्रकार तीस अन्तर्मुहूर्त और आठ वर्षोंसे कम पंचेन्द्रियस्थितिप्रमाण अपूर्वकरणका उत्कृष्ट अन्तर होता है। इसी प्रकारसे शेष तीनों उपशामकोका भी अन्तर कहना चाहिए। विशेष बात यह है कि उनके क्रमशः अट्ठाईस छव्वीस और चौवीस भन्तर्मुहतोंसे अधिक आठ वर्ष कम पंचेन्द्रिय-स्थितिप्रमाण अन्तर होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001399
Book TitleShatkhandagama Pustak 05
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages481
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size9 MB
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