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________________ १, ६, १२४.] अंतराणुगमे पंचिंदिय-अंतरपरूवणं [७५ अप्पमत्तस्स उच्चदे- एक्को एइंदियट्ठिदिमच्छिदो मणुसेसु उववण्णो गम्भादिअट्ठवस्साणमुवरि उवसमसम्मत्तमप्पमत्तगुणं च जुगवं पडिवण्णो। आदी दिट्ठा (१)। अंतरिदो अपच्छिमे पंचिंदियभवे मणुस्सेसु उववण्णो । दसणमोहणीयं खधिय अंतोमुहुत्तावसेसे संसारे विसुद्धो अप्पमत्तो जादो (२)। तदो पमत्तो (३) अप्पमत्तो (४)। उवरि छ अंतोमुहुत्ता । एवमट्टवस्सेहि दसहि अंतोमुहुत्तेहि य ऊणिया पंचिंदियट्टिदी उक्कस्संतरं । चदुण्हमुवसामगाणं णाणाजीवं पडि ओघं ॥१२२ ॥ कुदो ? जहण्णेण एगसमओ, उक्कस्सेण वासपुधत्तमिच्चेएहि ओघादो भेदाभावा । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतोमुहुत्तं ॥ १२३॥ तिण्हमुवसामगाणमुत्ररि चढिय हेट्ठा ओदिण्णे जहण्णमंतरं होदि । उवसंतकसायस्स हेट्ठा ओदरिय पुणो सब्बजहण्णेण कालेण उवसंतकसायत्तं पडिवण्णे जहण्णमंतरं होदि। उक्कस्सेण सागरोवमसहस्साणि पुवकोडिपुधत्तेणब्भहियाणि, सागरोवमसदपुधत्तं ॥ १२४ ॥ अप्रमत्तसंयतका उत्कृष्ट अन्तर कहते हैं- एकेन्द्रियकी स्थितिमें स्थित एक जीव मनुष्यों में उत्पन्न हुआ और गर्भादि आठ वर्षांसे ऊपर उपशमसम्यक्त्व तथा अप्रमत्तगुणस्थानको युगपत् प्राप्त हुआ। इस प्रकार इस गुणस्थानका आरंभ दिखाई दिया। पश्चात् अन्तरको प्राप्त हो अन्तिम पंचेन्द्रिय भवमें मनुष्योंमें उत्पन्न हुआ। दर्शनमोहनीयका क्षय कर संसारके अन्तर्मुहूर्त अवशेष रहने पर विशुद्ध हो अप्रमत्तसंयत हुआ (२)। पश्चात् प्रमत्तसंयत (३) अप्रमत्तसंयत (४) हुआ । इनमें ऊपरके छह अन्तर्मुहूर्त मिलाने पर आठ वर्ष और दश अन्तर्मुहूर्तोंसे कम पंचेन्द्रियकी स्थिति अप्रमत्तसंयतका उत्कृष्ट अन्तर है। चारों उपशामकोंका अन्तर नाना जीवोंकी अपेक्षा ओघके समान है ॥ १२२ ॥ क्योंकि, नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे वर्षपृथक्त्व, इस प्रकार ओघसे इनमें कोई भेद नहीं है। चारों उपशामकोंका एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है ॥१२३॥ अपूर्वकरणसंयत आदि तीनों उपशामकोंका ऊपर चढ़कर नीचे उतरनेपर जघन्य अन्तर होता है । किन्तु उपशान्तकषायका नीचे उतरकर पुनः सर्वजघन्य कालसे उपशान्तकषायको प्राप्त होनेपर जघन्य अन्तर होता है। चारों उपशामकोंका उत्कृष्ट अन्तर पूर्वकोटिपृथक्त्वसे अधिक सागरोपमसहस्र और सागरोपमशतपृथक्त्व है ॥१२४ ॥ १ चतुर्णामुपशमकाना नानाजीवापेक्षया सामान्यवत् । स. सि. १, ८. . २ एकजीवं प्रति जघन्येनान्तर्मुर्तः । स. सि. १, ८. ३ उत्कर्षेण सागरोपमसहस्रं पूर्वकोटीपृथक्त्वैरभ्यधिकम् । स. सि. १, ८. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001399
Book TitleShatkhandagama Pustak 05
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages481
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size9 MB
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