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________________ ७४ ] छक्खंडागेम जीवट्ठाणं [ १, ६, १२१. खविय अंतोमुहुत्तावसेसे संसारे संजमासंजमं च पडिवण्णो (३) अप्पमत्तो ( ४ ) । मत्तो (५) अप्पमत्तो ( ६ ) । उवरि छ मुहुत्ता । तिष्णिपक्खेहि तिष्णिदिवसे हि वारस अंतोमुहुतेहि य ऊणिया सगट्ठिदी लद्धं संजदासंजदाणमुक्कस्संतरं । एईदिएस किण्ण उप्पाइदो ? लद्धमंतरं करिय उवरि सिज्झणकालादो मिच्छत्तं गंतूण एइंदिएसु आउअं बंधिय तत्थुष्पज्जणकालो संखेज्जगुणो त्ति एइंदिएमु ण उप्पादिदो । उवरिमाणं पि एदमेव कारणं वत्तव्वं । पमत्तस्स वुच्चदे- एक्को एइंदियट्ठिदिमच्छिदो मणुसेसु उबवण्णो । गन्भादिअट्ठवस्सेहि उवसमसम्मत्तमप्पमत्तगुणं च जुगवं पडिवण्णो ( १ ) पमतो जादो ( २ ) | हेट्ठा पडिदूतरिदो सगट्ठिदिं परिभमिय अपच्छिमे भवे मणुसो जादो । दंसणमोहणीयं खविय अंतोमुहुत्तावसेसे संसारे अप्पमत्तो होढूण पमत्तो जादो ( ३ ) | लद्धमंतरं । भूओ अप्पमत्तो ( ४ ) उवरि छ अंतोमुहुत्ता । अट्ठहि वस्सेहि दसहि अंतोमुहुत्तेहि य ऊणिया सगद्विदी पमत्तमुक्कस्संतरं लद्धं । अन्तर्मुहूर्तप्रमाण अवशेष रहने पर संयमासंयमको प्राप्त हुआ (३) । पश्चात् अप्रमत्तसंयत (४) प्रमत्तसंयत (५) अप्रमत्तसंयत (६) हुआ। इनमें अपूर्वकरणादिसम्बन्धी ऊपरके छह मुहूर्तोंको मिलाकर तीन पक्ष, तीन दिवस और बारह अन्तर्मुहूर्तोंसे कम अपनी स्थितिप्रमाण संयतासंयतोंका उत्कृष्ट अन्तर है । शंका-उक्त जीवको एकेन्द्रियोंमें क्यों नहीं उत्पन्न कराया ? समाधान-संयतासंयतका अन्तर लब्ध होनेके पश्चात् ऊपर सिद्ध होने तकके कालसे मिथ्यात्वको जाकर एकेन्द्रियों में आयुको बांधकर उनमें उत्पन्न होनेका काल संख्यातगुणा है, इसलिए एकेन्द्रियोंमें नहीं उत्पन्न कराया। इसी प्रकार प्रमत्तादि उपरितन गुणस्थानवर्ती जीवोंके भी यही कारण कहना चाहिए । प्रमत्तसंयतका उत्कृष्ट अन्तर कहते हैं- एकेन्द्रियस्थितिको प्राप्त एक जीव मनुष्योंमें उत्पन्न हुआ और गर्भादि आठ वर्षोंसे उपशमसम्यक्त्व और अप्रमत्तगुणस्थानको एकसाथ प्राप्त हुआ (१) । पश्चात् प्रमत्तसंयत हुआ (२) । पीछे नीचे गिरकर अन्तरको प्राप्त हो अपनी स्थितिप्रमाण परिभ्रमण कर अन्तिम भवमें मनुष्य हुआ । दर्शनमोहनीयका क्षयकर अन्तर्मुहूर्तकाल संसारके अवशिष्ट रहने पर अप्रमत्तसंयत होकर पुनः प्रमत्तसंयत हुआ (३) । इस प्रकार अन्तर लब्ध हुआ । पुनः अप्रमत्तसंयत (४) हुआ। इनमें ऊपरके छह अन्तर्मुहूर्त मिलाकर आठ वर्ष और दश अन्तर्मुहूतौंसे कम अपनी स्थिति प्रमत्तसंयतका उत्कृष्ट अन्तर प्राप्त होता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001399
Book TitleShatkhandagama Pustak 05
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages481
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size9 MB
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