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________________ सिरि-भगवंत-पुप्फदंत-भूदबलि-पणीदो छक्खंडागमो सिरि-वीरसेणाइरिय-विरइय-धवला-टीका-समण्णिदो तस्स पढमखंडे जीवट्ठाणे भावाणुगमो अवगयअसुद्धभावे उवगयकम्मक्खउच्चउब्भावे । पणमिय सबरहते भावणिओगं परूवेमो ॥ भावाणुगमेण दुविहो णिदेसो, ओघेण आदेसेण ये ॥ १॥ णाम-द्ववणा-दव्य-भावो त्ति चउन्विहो भावो । भावसदो बज्झत्थणिरवेक्खो अप्पाणम्हि चेव पयट्टो णामभावो होदि। तत्थ ठवणभावो सब्भावासब्भावभेएण दुविहो। विराग-सरागादिभावे अणुहरंती ठवणा सब्भावट्ठवणभावो । तबिवरीदो असब्भावट्ठवण अशुद्ध भावोंसे रहित, कर्मक्षयसे प्राप्त हुए हैं चार अनन्तभाव जिनको, ऐसे सर्व अरहंतोंको प्रणाम करके भावानुयोगद्वारका प्ररूपण करते हैं । भावानुगमद्वारकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है, ओघनिर्देश और आदेशनिर्देश ॥१॥ नाम, स्थापना, द्रव्य और भावकी अपेक्षा भाव चार प्रकारका है। बाह्य अर्थसे निरपेक्ष अपने आपमें प्रवृत्त 'भाव' यह शब्द नामभावनिक्षेप है । उन चार निक्षेपोंमेंसे स्थापनाभावनिक्षेप, सद्भाव और असद्भाघके भेदसे दो प्रकारका है। उनमेसे विरागी और सरागी आदि भावोंका अनुकरण करनेवाली स्थापना सद्भावस्थापना भावनि है। उससे विपरीत असद्भावस्थापना भावनिक्षेप है । द्रव्यभावनिक्षेप आगम और १ भावो विभाव्यते । स द्विविधः, सामान्येन विशेषेण च । स. सि.१, ८. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001399
Book TitleShatkhandagama Pustak 05
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages481
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size9 MB
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