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________________ छक्खंडागमे जीवद्वाणं [ १, ६, २८६. असंजदसम्मादिट्टि पहुडि जाव अप्पमत्त संजदाणमंतरं केवचिरं कालादो होदि, णाणाजीवं पडुच्च णत्थि अंतरं, निरंतरं ॥ २८६ ॥ १३८ ] सुगममेदं । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतोमुहुत्तं ॥ २८७ ॥ कुदो ? एदेसिं सच्चेसिं पि अण्णगुणं गंतूण जहण्णकालेण अप्पिदगुणं गदाणमंतोमुहुर्त्ततरुवलंभा । उक्कस्सेण वे सागरोवमसहस्साणि देसृणाणि ॥ २८८ ॥ तं जधा- एक्को अचक्खुदंसणिडिदिमच्छिदो असण्णिपंचिंदियसम्मुच्छिमपञ्जत्तएसु उववण्णो । पंचहि पज्जत्तीहि पज्जत्तयदो ( १ ) विस्तो ( २ ) विसुद्धो ( ३ ) भवणवासिय वाणवेंतरदेवेसु आउअं बंधिय ( ४ ) विस्संतो ( ५ ) कालं गदो देवेसु उबवण्णो । छहि पज्जत्तीहि पज्जत्तयदो ( ६ ) विस्संतो (७) विसुद्धो (८) उवसमसम्मत्तं पडिवण्णो (९)। उवसमसम्मत्तवाए छ आवलियाओ अस्थि त्ति सासणं गंतूणंतरिदो । मिच्छत्तं गंतूण असंयतसम्यग्दृष्टिसे लेकर अप्रमत्तसंयत गुणस्थान तक चक्षुदर्शनियोंका अन्तर कितने काल होता है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर नहीं है, निरन्तर है ॥ २८६ ॥ यह सूत्र सुगम है । उक्त जीवोंका एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है || २८७ ॥ क्योंकि, इन सभी गुणस्थानवर्ती जीवोंके अन्य गुणस्थानको जाकर पुनः जघन्य कालसे विवक्षित गुणस्थानको प्राप्त होनेपर अन्तर्मुहूर्तप्रमाण अन्तर पाया जाता है । उक्त जीवोंका एक जीवकी अपेक्षा उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम दो हजार सागरोपम है ॥ २८८ ॥ जैसे- अचक्षुदर्शनी जीवोंकी स्थितिमें विद्यमान एक जीव असंज्ञी पंचेन्द्रिय सम्मूच्छिम पर्याप्तक जीवोंमें उत्पन्न हुआ । पांचों पर्याप्तियोंसे पर्याप्त हो ( १ ) विश्राम ले ( २ ) विशुद्ध हो (३) भवनवासी या वानव्यन्तरोंमें आयुको बांध कर ( ४ ) विश्राम ले (५) मरणको प्राप्त हुआ और देवोंमें उत्पन्न हुआ। वहां छहों पर्याप्तियोंसे पर्याप्त हो (६) विश्राम ले (७ विशुद्ध हो ( ८ ) उपशमसम्यक्त्वको प्राप्त हुआ (९) । उपशमसम्यक्त्वके कालमें छह आवलियां अवशेष रहने पर सासादनको जाकर अन्तरको प्राप्त १ असंयतसम्यग्दृष्ट्याद्यप्रमत्तान्तानां नानाजीवापेक्षया नास्त्यन्तरम् । स. सि. १, ८, २ एकजीवं प्रति जघन्येनान्तर्मुहूर्तः । स. सि. १, ८. ३ उत्कर्षेण द्वे सागरोपमसहस्रे देशोने । स. सि. १, ८. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001399
Book TitleShatkhandagama Pustak 05
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages481
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size9 MB
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