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१, ६, २८८.] अंतराणुगमे चक्खुदंसणि-अंतरपरूवणं चक्खुदंसणिट्ठिदि भमिय अवसाणे उवसमसम्मत्तं पडिवण्णो (१०)। लद्धमंतरं । पुणो सासणं गदो अचक्खुदंसणीसु उववण्णो । दसहि अंतोमुहुत्तेहि ऊणिया सगद्विदी असंजदसम्मादिट्ठीणमुक्कस्संतरं ।
संजदासंजदस्स उच्चदे । तं जहा- एक्को अचक्खुदंसणिट्ठिदिमच्छिदो गम्भोवक्कंतियपंचिंदियपज्जत्तएसु उववण्णो । सण्णिपंचिंदियसम्मुच्छिमपज्जत्तएसु किण्ण उप्पादिदो ? ण, सम्मुच्छिमेसु पढमसम्मत्तुप्पत्तीए असंभवादो। ण च असंखेज्जलोगमणंत' वा कालमचक्खुदंसणीसु परिभमियाण वेदगसम्मत्तग्गहणं संभवदि, विरोहा । ण च थोवकालमच्छिदो चक्रवुदंसणिहिदीए समाणणक्खमा । तिष्णि पक्ख तिण्णि दिवस अंतोमुहुत्तेण य पढमसम्मत्तं संजमासंजमं च जुगवं पडिवण्णो (२)। पढमसम्मत्तद्धाए छावलियाओ अत्थि त्ति सासणं गदो । अंतरिदो मिच्छत्तं गंतूण सगढिदिं परिभमिय अपच्छिमे भवे कदकरणिज्जो होदूण संजमासंजमं पडिवण्णो (३)। लद्धमंतरं । अप्पमत्तो
हुआ। पुनः मिथ्यात्वको जाकर चक्षुदर्शनकी स्थितिप्रमाण परिभ्रमण कर अन्तमें उपशमसम्यक्त्वको प्राप्त हुआ। इस प्रकार अन्तर लब्ध हुआ। पुनः सासादनको गया और अचक्षुदर्शनी जीवोंमें उत्पन्न हुआ। इस प्रकार दश अन्तर्मुहूतोंसे कम अपनी स्थिति चक्षुदर्शनी असंयतसम्यग्दृष्टि जीवोंका उत्कृष्ट अन्तर होता है।
चक्षुदर्शनी संयतासंयतका उत्कृष्ट अन्तर कहते हैं । जैसे-अचक्षुदर्शनकी स्थितिमें विद्यमान एक जीव गर्भोपक्रान्तिक पंचेन्द्रिय पर्याप्तकोंमें उत्पन्न हुआ।
शंका-उक्त जीवको संशी पंचेन्द्रिय सम्मूछिम पर्याप्तकोंमें क्यों नहीं उत्पन्न कराया ?
समाधान नहीं, क्योंकि, सम्मूञ्छिम जीवों में प्रथमोपशमसम्यक्त्वकी उत्पत्ति असम्भव है। तथा असंख्यात लोकप्रमाण या अनन्तकाल तक अचक्षुदर्शनियोंमें परिभ्रमण किये हुए जीवोंके वेदकसम्यक्त्वका ग्रहण करना सम्भव नहीं है, क्योंकि, ऐसे जीवोंके सम्यक्त्वोत्पत्तिका विरोध है। और न अल्पकाल तक रहा हुआ जीव चक्षुदर्शनकी स्थितिके समाप्त करने में समर्थ है।
पुनः वह जीव तीन पक्ष, तीन दिवस और अन्तर्मुहूर्तसे प्रथमोपशमसम्यक्त्व और संयमासंयमको एक साथ प्राप्त हुआ (२)। प्रथमोपशमसम्यक्त्वके कालमें छह आवलियां अवशिष्ट रह जाने पर सासादनको प्राप्त हुआ। पुनः अन्तरको प्राप्त हो मिथ्यात्वको जाकर अपनी स्थितिप्रमाण परिभ्रमणकर अन्तिम भवमें कृतकृत्यवेदक होकर संघमासंयमको प्राप्त हुआ (३) । इस प्रकार अन्तर लब्ध हुआ । पुनः अप्रमत्तसंयत (४)
१ प्रतिषु ' असंखेज्जा लीगमणतं ' इति पाठः ।
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