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________________ १५०] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, ६, २८८. (४) पमत्तो (५) अप्पमत्तो (६)। उवरि छ अंतोमुहुत्ता । एवमडदालीसदिवेसहि वारसअंतोमुहुत्तेहि य ऊणा सगहिदी संजदासंजदुक्कस्संतरं । पमत्तस्स उच्चदे-एक्को अचक्खुदंसणिहिदिमच्छिदो मणुसेसु उववण्णो गब्भादिअट्ठवस्सेण उवसमसम्मत्तमप्पमत्तगुणं च जुगवं पडिवण्णो । (१)। पुणो पमत्तो जादो (२)। हेट्ठा पडिदूर्णतरिदो । चक्खुदंसणिट्ठिदिं परिभमिय अपच्छिमे भवे मणुसो जादो । कदकरणिज्जो होदण अंतोमुहुत्तावसेसे जीविए अप्पमत्तो होदूण पमत्तो जादो (३)। लद्धमंतरं । भूओ अप्पमत्तो (४)। उवरि छ अंतोमुहुत्ता । एवमट्टवस्सेहि दसअंतोमुहुतेहि ऊणिया सगढिदी पमत्तस्सुक्कस्संतरं । (अप्पमत्तस्स उच्चदे-) एक्को अचक्खुदंसणिद्विदिमच्छिदो मणुसेसु उववण्णो। गब्भादिअट्टवस्सेण उवसमसम्मत्तमप्पमत्तगुणं च जुगवं पडिवण्णो (१)। हेट्ठा पडिदूण अंतरिदो चक्खुदंसणिहिदि परिभामिय अपच्छिमे भवे मणुसेसु उववण्णो । कदकरणिज्जो होदण अंतोमुहुत्तावसेसे संसारे विसुद्धो अप्पमत्तो जादो (२)। लद्धमंतरं । तदो पमत्तो प्रमत्तसंयत (५) और अप्रमत्तसंयत हुआ (६)। इनमें ऊपरके छह अन्तर्मुहूर्त और मिलाये । इस प्रकार अड़तालीस दिवस और बारह अन्तर्मुहूतोंसे कम अपनी स्थिति चक्षुदर्शनी संयतासंयतोका उत्कृष्ट अन्तर है। चक्षुदर्शनी प्रमत्तसंयतका उत्कृष्ट अन्तर कहते हैं- अचक्षुदर्शनी जीवोंकी स्थितिमें विद्यमान एक जीव मनुष्योंमें उत्पन्न हुआ और गर्भको आदि लेकर आठ वर्षसे उपशमसम्यक्त्व और अप्रमत्तगुणस्थानको एक साथ प्राप्त हुआ (१)। पुनः प्रमत्तसंयत हुआ (२) । पश्चात् नीचेके गुणस्थानोंमें गिरकर अन्तरको प्राप्त हुआ । चक्षुदर्शनीकी स्थितिप्रमाण परिभ्रमण करके अन्तिम भवमें मनुष्य हुआ। पश्चात् कृतकृत्यवेदक होकर जीवनके अन्तर्मुहूर्तकाल अवशेष रह जाने पर अप्रमत्तसंयत होकर प्रमत्तसंयत हुआ (३)। इस प्रकार अन्तर लब्ध होगया। पुनः अप्रमत्तसंयत हुआ (४)। इनमें ऊपरके छह अन्तर्मुहूर्त और मिलाये । इस प्रकार आठ वर्ष और दश अन्तर्मुहूर्तोंसे कम अपनी स्थिति चक्षुदर्शनी प्रमत्तसंयतका उत्कृष्ट अन्तर है।। चक्षुदर्शनी अप्रमत्तसंयतका उत्कृष्ट अन्तर कहते हैं- अचक्षुदर्शनी जीवोंकी स्थितिमें विद्यमान एक जीव मनुष्योंमें उत्पन्न हुआ। गर्भको आदि लेकर आठ वर्षके द्वारा उपशमसम्यक्त्व और अप्रमत्तगुणस्थानको एक साथ प्राप्त हुआ (१)। फिर नीचे गिरकर अन्तरको प्राप्त हो अचक्षुदर्शनीकी स्थितिप्रमाण परिभ्रमणकर अन्तिम भवमें मनुष्यों में उत्पन्न हुआ। पुनः कृतकृत्यवेदकसम्यक्त्वी होकर संसारके अन्तर्मुहूर्तप्रमाण अवशिष्ट रहने पर विशुद्ध हो अप्रमत्तसंयत हुआ (२)। इस प्रकार अन्तर प्राप्त Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001399
Book TitleShatkhandagama Pustak 05
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages481
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size9 MB
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