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१, ७, ६६.] भावाणुगमे सम्मादिहिभाव-परूवणं
[ २३१ गुणट्ठाणभावो अउत्तो वि णाणिज्जओ। अभवियत्तं पुण उवदेसमवेक्खदे, पुन्धमपरूविदसरूवत्तादो । तेण मग्गणाभावो उत्तो त्ति ।
एवं भवियमग्गणा समत्ता । सम्मत्ताणुवादेण सम्मादिट्ठीसु असंजदसम्मादिटिप्पहुडि जाव अजोगिकेवलि त्ति ओघं ॥ ६४ ॥
सुगममेदं ।
खइयसम्मादिट्ठीसु असंजदसम्मादिहि ति को भावो, खडओ भावों॥६५॥
कुदो ? दंसणमोहणीयस्स णिम्मूलक्खएणुप्पण्णसम्मत्तादो । खइयं सम्मत्तं ॥६६॥
खइयसम्मादिट्ठीसु सम्मत्तं खइयं चेव होदि त्ति अणुत्तसिद्धीदो णेदं सुत्तमाढवेदव्वं ? ण एस दोसो । कुदो ? ण ताव खइयसम्मादिट्ठी सण्णा खइयस्स सम्मत्तस्स
समाधान-गुणस्थानसम्बन्धी भाव तो विना कहे भी जाना जाता है । किन्तु अभव्यत्व ( कौनसा भाव है यह ) उपदेशकी अपेक्षा रखता है, क्योंकि, उसके स्वरूपका पहले प्ररूपण नहीं किया गया है। इसलिए यहांपर (गुणस्थानका भाव न कह कर) मार्गणासम्बन्धी भाव कहा है।
इस प्रकार भव्यमार्गणा समाप्त हुई। सम्यक्त्वमार्गणाके अनुवादसे सम्यग्दृष्टियोंमें असंयतसम्यग्दृष्टिसे लेकर अयोगिकेवली गुणस्थान तक भाव ओघके समान हैं ॥ ६४ ॥
यह सूत्र सुगम है। क्षायिकसम्यग्दृष्टियोंमें असंयतसम्यग्दृष्टि यह कौनसा भाव है ? क्षायिक भाव
क्योंकि, दर्शनमोहनीयकर्मके निर्मूल क्षयसे क्षायिकसम्यक्त्व उत्पन्न होता है। उक्त जीवोंके क्षायिक सम्यक्त्व होता है ॥ ६६ ॥
शंका--क्षायिकसम्यग्दृष्टियों में सम्यग्दर्शन क्षायिक ही होता है, यह बात अनुक्तसिद्ध है, इसलिए इस सूत्रका आरम्भ नहीं करना चाहिए?
समाधान-यह कोई दोष नहीं, क्योंकि, क्षायिकसम्यग्दृष्टि यह संशा क्षायिक
१ सम्यक्त्वानुवादेन क्षायिकसम्यग्दृष्टिषु असंयतसम्यग्दृष्टेः क्षायिको भावः । स. सि. १, ८. २ क्षायिकं सम्यक्त्वम् । स. सि. १, ८.
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