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________________ २३० ] छक्खंडागमे जीवद्वाणं [ १, ७, ६१. सुक्कले स्सिएसु मिच्छादिट्टि पहुडि जाव सजोगिकेवलित्ति ओघं ॥ ६१ ॥ सुगममेदं । एवं लेस्सामग्गणा समत्ता । भवियाणुवादेण भवसिद्धिएसु मिच्छादिट्टिप्पहुडि जाव अजोगि केवलित्ति ओधं ॥ ६२ ॥ कुदो ? एत्थतणगुणणाणं ओघगुणट्ठाणेहिंतो भवियत्तं पडि भेदाभावा । अभवसिद्धियत्तिको भावो, पारिणामिओ भावों ॥ ६३ ॥ कुदो ? कम्माणमुदएण उवसमेण खएण खओवसमेण वा अभवियत्ताणुप्पत्तीदो | भवियत्तस्स वि पारिणामिओ चेय भावो, कम्माणमुदय उवसम खय खओवसमेहि भवियताणुष्पत्तदो । गुणद्वाणस्स भावमभणिय मग्गणड्डाणभावं परूवेंतस्स कोभिप्पाओ ! शुक्लश्यावालों में मिथ्यादृष्टिसे लेकर सयोगिकेवली गुणस्थान तक भाव ओघके समान हैं ॥ ६१ ॥ यह सूत्र सुगम है । इस प्रकार लेश्यामार्गणा समाप्त हुई । to मार्गणा के अनुवाद से भव्यसिद्धिकों में मिध्यादृष्टिसे लेकर अयोगिकेवली गुणस्थान तक भाव ओघके समान हैं ॥ ६२ ॥ क्योंकि, भव्यमार्गणासम्बन्धी गुणस्थानोंका ओघ गुणस्थानोंसे भव्यत्व नामक पारिणामिकभावके प्रति कोई भेद नहीं है । अभयसिद्धिक यह कौनसा भाव है ? पारिणामिक भाव है ॥ ६३ ॥ क्योंकि, कर्मोंके उदयसे, उपशमसे, क्षयसे, अथवा क्षयोपशम से अभव्यत्व भाव उत्पन्न नहीं होता है । इसी प्रकार भव्यत्व भी पारिणामिक भाव ही है, क्योंकि, कर्मोंके उदय, उपशम, क्षय और क्षयोपशमसे भव्यत्व भाव उत्पन्न नहीं होता । शंका- यहां पर गुणस्थान के भावको न कह कर मार्गणास्थानसम्बन्धी भाषका प्ररूपण करते हुए आचार्यका क्या अभिप्राय है ? १ भव्यानुवादेन मध्यानां मिथ्यादृष्ट्याद्ययोगकेवल्यन्तानां सामान्यवत् । स. सि. १,८० २ अभव्याना पारिणामिको भावः । स. सि. १, ८. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001399
Book TitleShatkhandagama Pustak 05
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages481
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size9 MB
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