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________________ १, ७, ६०. ] भावागमे लेस्सियभाव- परूवणं [ २२९ कुदो ! मिच्छादिपिडि खीणकसायपज्जंतसव्वगुणट्ठाणाणं चक्खु अचक्खुदंसणविरहियाणमणुवलंभा । ओहिदंसणी ओहिणाणिभंगो ॥ ५७ ॥ केवलदंसणी केवलणाणिभंगो ।। ५८ ।। दाणि दो वित्ताणि सुगमाणि । एवं दंसणमग्गणा समत्ता । लेस्साणुवादेण किण्हलेस्सिय-णीललेस्सिय काउलेस्सिएसु चदुट्टाणी ओघं ॥ ५९ ॥ चदुण्हं ठाणाणं समाहारो चदुट्टाणी । केण समाहारो ? एगलेस्साए । सेसं सुगमं । तेउलेस्सिय-पम्मलेस्सिएसु मिच्छादिट्टि पहुडि जाव अप्पमत्तसंजदा ति ओघं ॥ ६० ॥ एदं सुमं । क्योंकि, मिथ्यादृष्टिसे लेकर क्षीणकषाय पर्यंत कोई गुणस्थान चक्षुदर्शन और अचक्षुदर्शनवाले जीवोंसे रहित नहीं पाया जाता है । अवधिदर्शनी जीवोंके भाव अवधिज्ञानियोंके भावोंके समान हैं ॥ ५७ ॥ केवलदर्शनी जीवोंके भाव केवलज्ञानियोंके भावों के समान हैं ॥ ५८ ॥ ये दोनों ही सूत्र सुगम हैं । इस प्रकार दर्शनमार्गणा समाप्त हुई । श्यामार्गणा अनुवादसे कृष्णलेश्या, नीललेश्या और कापोतलेश्या वालोंमें आदिके चार गुणस्थानवर्ती भाव ओघके समान हैं ॥ ५९ ॥ चार स्थानोंके समाहारको चतुःस्थानी कहते हैं । शंका- चारों गुणस्थानोंका समाहार किस अपेक्षासे है ? समाधान — एक लेइयाकी अपेक्षासे है, अर्थात् आदिके चारों गुणस्थानों में एकसी लेश्या पाई जाती है । शेष सूत्रार्थ सुगम है । तेजोलेश्या और पद्मलेश्या वालोंमें मिथ्यादृष्टिसे लेकर अप्रमत्तसंयत गुणस्थान तक भाव ओघके समान हैं ॥ ६० ॥ यह सूत्र सुगम है । १ लेश्यानुवादेन षड्लेश्यानामलेश्यानां च सामान्यवत् । स. सि. १, ८. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001399
Book TitleShatkhandagama Pustak 05
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages481
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size9 MB
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