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________________ २३२] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, ७, ६७. अत्थित्तं गमयदि, तवण-भक्खरादिणामस्स अणणुअट्ठस्स वि उवलंभा । ण च अण्णं किंचि खइयसम्मत्तस्स अत्थित्तम्हि चिण्हमत्थि । तदो खइयसम्मादिहिस्स खइयं चेव सम्मत्तं होदि त्ति जाणाविदं । अवरं च ण सव्वे सिस्सा उप्पण्णा चेव, किंतु अउप्पण्णा वि अस्थि । तेहि खइयसम्मादिट्ठीणं किमुवसमसम्मत्तं, किं खइयसम्मत्तं, किं वेदगसम्मत्तं होदि त्ति पुच्छिद एदस्स मुत्तस्स अवयारो जादो, खइयसम्मादिट्ठीणं खइयं चेव सम्मत्तं होदि, ण सेसदोसम्मत्ताणि त्ति जाणावणहूँ अपुधकरणक्खवयाणं खइयभावाणं खड्यचरित्तस्सेव दंसणमोहखवयाणं पि खड्यभावाणं तस्संबंधण वेदयसम्मत्तोदए संते वि खइयसम्मत्तस्स अत्थित्तप्पसंगे तप्पडिसेहढे वा। ओदइएण भावेण पुणो असंजदों ॥ ६७ ॥ सुगममेदं । संजदासंजद-पमत्त-अप्पमत्तसंजदा त्ति को भावो,खओवसमिओ भावों ॥ ६८ ॥ सम्यक्त्वके अस्तित्वका शान नहीं कराती है। इसका कारण यह है लोकमें तपन, भास्कर आदि अनन्वर्थ (अर्थशून्य या रूढ) नाम भी पाये जाते हैं । इसके अतिरिक्त अन्य कोई चिन्ह क्षायिकसम्यक्त्यके अस्तित्वका है नहीं। इसलिए क्षायिकसम्यग्दृष्टिके क्षायिक सम्यक्त्व ही होता है, यह बात इस सूत्रसे ज्ञापित की गई है। दूसरी बात यह भी है कि सभी शिष्य व्युत्पन्न नहीं होते, किन्तु कुछ अव्युत्पन्न भी होते हैं। उनके द्वारा क्षायिकसम्यग्दृष्टियोंके क्या उपशमसम्यक्त्व है, किंवा क्षायिकसम्यक्त्व है, किंवा वेदकसम्यक्त्व ता है. ऐसा पछने पर क्षायिकसम्यग्दृष्टियोंके क्षायिक ही सम्यक्त्व होता है, शेष दो सम्यक्त्व नहीं होते हैं, इस बातके जतलानेके लिए, अथवा क्षायिकभाववाले अपूर्वकरण गुणस्थानवर्ती क्षपकोंके क्षायिक चारित्रके समान क्षायिकभाववाले भी जीवोंके दर्शनमोहनीयका क्षपण करते हुए उसके सम्बन्धसे वेदकसम्यक्त्वप्रकृतिके उदय रहने पर भी क्षायिकसम्यक्त्वके अस्तित्वका प्रसंग प्राप्त होनेपर उसका प्रतिषेध करनेके लिए इस सूत्रका अवतार हुआ है। किन्तु क्षायिकसम्यग्दृष्टिका असंयतत्व औदयिक भावसे है ॥ ६७ ॥ यह सूत्र सुगम है। क्षायिकसम्यग्दृष्टि संयतासंयत, प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत यह कौनसा भाव है ? क्षायोपशमिक भाव है ॥ ६८ ॥ १ असंयतत्वमौदयिकेन मावेन । स. सि. १,८. २ संयतासंयतप्रमत्ताप्रमत्तसंयतानां क्षायोपशमिको भावः । स. सि. १,८. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001399
Book TitleShatkhandagama Pustak 05
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages481
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size9 MB
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