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१, ७, ७२.] भावाणुगमे सम्मादिदिभाव-परूवणं
[२३३ कुदो ? चारित्तावरणकम्मोदए संते वि जीवसहावचारित्तेगदेसस्स संजमासजमपमत्त-अप्पमत्तसंजमस्स आविब्भावस्सुवलंभा ।
खइयं सम्मत्तं ॥ ६९॥ सुगममेदं । चदुण्हमुवसमा त्ति को भावो, ओवसमिओ भावो ॥ ७० ॥ मोहणीयस्सुवसमेणुप्पण्णचरित्तत्तादो, मोहोवसमणहेदुचारित्तसमण्णिदत्तादो य । खइयं सम्मत्तं ॥ ७१ ॥
पारद्धदसणमोहणीयक्खवणो कदकरणिज्जो वा उवसमसेटिं ण चढदि त्ति जाणावणट्ठमेदं सुत्तं भणिदं । सेसं सुगमं ।
चदुण्हं खवा सजोगिकेवली अजोगिकेवलि त्ति को भावो, खइओ भावों ॥७२॥
क्योंकि, चारित्रावरणकर्मके उदय होने पर भी जीवके स्वभावभूत चारित्रके एक देशरूप संयमासंयम, प्रमत्तसंयम और अप्रमत्तसंयमका (उक्त जीवोंके क्रमशः) आविर्भाव पाया जाता है।
उक्त जीवोंके सम्यग्दर्शन क्षायिक ही होता है ॥ ६९ ॥ यह सूत्र सुगम है।
अपूर्वकरण आदि चार गुणस्थानोंके क्षायिकसम्यग्दृष्टि उपशामक यह कौनसा भाव है ? औपशमिक भाव है ॥ ७० ॥
क्योंकि, उपशान्तकषायके मोहनीयकर्मके उपशमसे उत्पन्न हुआ चारित्र पाया जानेसे और शेष तीन उपशामकोंके मोहोपशमके कारणभूत चारित्रसे समन्वित होनेसे औपशमिकभाव पाया जाता है।
क्षायिकसम्यग्दृष्टि चारों उपशामकोंके सम्यग्दर्शन क्षायिक ही होता है ॥७१॥
दर्शनमोहनीयकर्मके क्षपणका प्रारम्भ करनेवाला जीव, अथवा कृतकृत्यवेदक सम्यग्दृष्टि जीव, उपशमश्रेणीपर नहीं चढ़ता है, इस बातका शान करानेके लिए यह सूत्र कहा गया है। शेष सूत्रार्थ सुगम है ।
क्षायिकसम्यग्दृष्टि चारों गुणस्थानोंके क्षपक, सयोगिकेवली और अयोगिकेवली यह कौनसा भाव है ? क्षायिक भाव है ॥ ७२ ॥
१ क्षायिकं सम्यक्त्वम् । स. सि. १, ८. २ चतुर्णामुपशमकानामौपशमिको भावः । स. सि. १,८... ३ क्षायिकं सम्यक्त्वम् । स. सि. १,८. ४ शेषाणां सामान्यवत् । स. सि. १.८.
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