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________________ १, ७, ९०.] भावाणुगमे सण्णि-असण्णिभाव-परूवणं [२३७ सम्मामिच्छादिट्टी ओघं ॥ ८७ ॥ मिच्छादिट्ठी ओघं ॥ ८८ ॥ तिणि वि सुत्ताणि अवगयत्थाणि । एवं सम्मत्तमग्गणा समत्ता । सण्णियाणुवादेण सण्णीसु मिच्छादिहिप्पहुडि जाव खीणकसायवीदरागछदुमत्था त्ति ओघं ॥ ८९ ॥ सुगममेदं। असण्णि त्ति को भावो, ओदइओ भावों ॥ ९० ॥ कुदो ? णोइंदियावरणस्स सव्वधादिफद्दयाणमुदएण असण्णित्तुप्पत्तीदो। असण्णिगुणट्ठाणभावो किण्ण परूविदो ? ण, उवदेसमंतरेण तदवगमादो। एवं सण्णिमग्गणा समत्ता । सम्यग्मिथ्यादृष्टि भाव ओघके समान है ॥ ८७ ॥ मिथ्यादृष्टि भाव ओघके समान है ॥ ८८ ॥ इन तीनों ही सूत्रोंका अर्थ ज्ञात है। ___ इस प्रकार सम्यक्त्वमार्गणा समाप्त हुई। संज्ञिमार्गणाके अनुवादसे संज्ञियोंमें मिथ्यादृष्टिसे लेकर क्षीणकषायवीतरागछद्मस्थ तक भाव ओघके समान हैं ॥ ८९ ॥ यह सूत्र सुगम है। असंज्ञी यह कौनसा भाव है ? औदयिक भाव है ॥ ९० ॥ क्योंकि, नोइन्द्रियावरणकर्मके सर्वघाती स्पर्धकोंके उदयसे असंशित्व भाव उत्पन्न होता है। शंका--यहांपर असंज्ञी जीवोंके गुणस्थानसम्बन्धी भावको क्यों नहीं बतलाया? समाधान-नहीं, क्योंकि, उपदेशके विना ही उसका ज्ञान हो जाता है । इस प्रकार संज्ञीमार्गणा समाप्त हुई। १ सम्यग्मिथ्यादृष्टेः क्षायोपशमिको भावः। स. सि. १, ८. २ मिथ्यादृष्टेरौदयिको मावः। स. सि. १, ८. ३ संज्ञानुवादेन संज्ञिनां सामान्यवत् । स. सि. १,८. ४ असंज्ञिनामौदयिको भावः। स. सि. १, ८. ५ तदुभयव्यपदेशरहितानां सामान्यवत् । स. सि. १,८. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001399
Book TitleShatkhandagama Pustak 05
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages481
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size9 MB
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