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________________ १, ६, ३४२. ] अंतराणुगमै खइयसम्मादिद्वि-अंतरपरूवणं [१५७ तं जहा- एक्को पुवकोडाउएसु मणुसेसुत्रवजिय गम्भादिअट्ठवस्सिओ जादो । दंसणमोहणीयं खविय खड्यसम्मादिट्ठी जादो (१)। अंतोमुहुत्तमच्छिदूण (२) संजमासंजमं संजमं वा पडिवज्जिय पुनकोडिं गमिय कालं गदो देवो जादो । अदुवस्सेहि विअंतोमुहुत्तेहि य ऊणिया पुधकोडी अंतरं । ___ संजदासंजद-पमत्तसंजदाणमंतरं केवचिरं कालादो होदि णाणाजीवं पडुच्च णत्थि अंतरं, णिरंतरं ॥ ३४०॥ सुगममेदं । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतोमुहुत्तं ॥ ३४१ ॥ एदं पि सुगमं । उक्कस्सेण तेत्तीसं सागरोवमाणि सादिरेयाणि ॥ ३४२ ॥ तं जहा- एक्को पुब्बकोडाउगेसु मणुसेसु उबवण्णो । गम्भादिअहवस्साणमुवरि अंतोमुहुरोण (१) खइयं पट्टविय (२ ) विस्समिय (३) संजमासंजमं पडिवजिय (४) जैसे- एक जीव पूर्वकोटीकी आयुवाले मनुष्यों में उत्पन्न होकर गर्भसे लेकर आठ वर्षका हुआ और दर्शनमोहनीयका क्षय करके क्षायिकसम्यग्दृष्टि होगया (१)। वहां अन्तर्मुहूर्त रह करके (२) संयमासंयम या संयमको प्राप्त होकर और पूर्वकोटी वर्ष बिताकर मरणको प्राप्त हो देव हुआ। इस प्रकार आठ वर्ष और दो अन्तर्मुहूतौसे कम पूर्वकोटी वर्ष असंयत क्षायिकसम्यग्दृष्टिका उत्कृष्ट अन्तर है।। क्षायिकसम्यग्दृष्टि संयतासंयत और प्रमत्तसंयत जीवोंका अन्तर कितने काल होता है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर नहीं है, निरन्तर है ॥ ३४॥ यह सूत्र सुगम है। उक्त जीवोंका एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूते है ॥ ३४१॥ . यह सूत्र भी सुगम है। उक्त जीवोंका एक जीवकी अपेक्षा उत्कृष्ट अन्तर साधिक तेतीस सागरोपम है ॥३४२॥ जैसे- एक जीव पूर्वकोटि वर्षकी आयुवाले मनुष्यों में उत्पन्न हुआ । गर्भको आदि : लेकर आठ वर्षों के पश्चात् अन्तर्मुहूर्तसे (१) क्षायिकसम्यक्त्वका प्रस्थापनकर (२); विश्राम ले (३) संयमासंयमको प्राप्त कर (४) संयमको प्राप्त हुआ। संयमसहित ; १ संयतासंयतप्रमत्ताप्रमत्तसंयतानां नानाजीवापेक्षया नास्त्यातरम् । स. सि. १,८. २ एकजीवं प्रति जघन्येनान्तर्मुहूर्तः । स. सि. १, ८. ३ उत्कर्षेण त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाणि सातिरेकाणि । स. सि. १,८. प्रतिषु 'पट्टमियं' इति पाठः । dho Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001399
Book TitleShatkhandagama Pustak 05
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages481
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size9 MB
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