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- छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[१, ६, ३३५. - जधा ओधिणाणमग्गणाए संजदासंजदादीणमंतरपरूवणा कदा, तधा कादव्या, पत्थि एत्थ कोइ विसेसो।
चदुण्हं खवगा अजोगिकेवली ओघं ॥ ३३५॥ सजोगिकेवली ओघं ॥ ३३६ ॥ दो वि सुत्ताणि सुगमाणि ।
खइयसम्मादिट्ठीसु असंजदसम्मादिट्ठीणमंतरं केवचिरं कालादो होदि, णाणाजीवं पडुच्च णस्थि अंतरं, णिरंतरं ॥ ३३७ ॥
सुगममेदं । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतोमुहत्तं ॥ ३३८ ॥
तं जहा- एक्को असंजदसम्मादिट्ठी अण्णगुणं गंतूण सव्वजहण्णकालेण असंजदसम्मादिट्ठी जादो । लद्धमंतरं । - उक्कस्सेण पुवकोडी देसूणं ॥ ३३९ ॥
जिस प्रकारसे अवधिज्ञानमार्गणामें संयतासंयत आदिकोंके अन्तरकी प्ररूपणा की है, उसी प्रकार यहां पर भी करना चाहिए, क्योंकि, उससे यहां पर कोई विशेषता नहीं है।
सम्यग्दृष्टि चारों क्षपक और अयोगिकेवलियोंका अन्तर ओघके समान है ॥ ३३५ ॥
सम्यग्दृष्टि सयोगिकेवलीका अन्तर ओघके समान है ॥ ३३६ ॥ ये दोनों ही सूत्र सुगम है।
क्षायिकसम्यग्दृष्टियोंमें असंयतसम्यग्दृष्टियोंका अन्तर कितने काल होता है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर नहीं है, निरन्तर है ॥ ३३७ ॥
यह सूत्र सुगम है। - उक्त जीवोंका एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है ॥ ३३८ ।।
जैसे- एक असंयतसम्यग्दृष्टि जीव अन्य (संयतासंयतादि) गुणस्थानको जाकर सर्वजघन्य कालसे पुनः असंयतसम्यग्दृष्टि होगया। इस प्रकार अन्तर लब्ध हुआ।
उक्त जीवोंका एक जीवकी अपेक्षा उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम पूर्वकोटी वर्ष है ॥ ३३९ ॥
१ सम्यक्त्वानुवादेन क्षायिकसम्यग्दृष्टिष्वसंयतसम्यग्दृष्टे नाजीवापेक्षया नास्त्यन्तरम् स. सि. १, ८. २ एकजीवं प्रति जघन्येनान्तर्मुहूर्तः । स. सि. १,८. ३ उत्कर्षेण पूर्वकोटी देशोना । स. सि. १,८.
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