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१८६] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[१, ७, १. भावादो च' । भणिदं च
अप्पिदआदरभावो अणुग्गहभावो य धम्मभावो । ठवणाए कीरते ण होंति णामम्मि एए दु ॥१॥ णामिणि धम्मुवयारो णाम ढवणा य जस्स तं ठविदं ।
तद्धम्मे ण वि जादो सुणाम-ठवणाणमविसेसं ॥२॥ तम्हा चउबिहो चेव णिक्खेवो त्ति सिद्धं । तत्थ पंचसु भावेसु केण भावेण इह पओजणं ? पंचहिं मि । कुदो ? जीवेसु पंचभावाणमुवलंभा । ण च सेसदव्येसु पंच भावा अत्थि, पोग्गलदव्वेसु ओदइय-पारिणामियाणं दोण्हं चेव भावाणमुवलंभा, धम्माधम्म-कालागासदव्वेसु एक्कस्स पारिणामियभावस्सेवुवलंभा । भावो णाम जीवपरिणामो तिब्व-मंदणिज्जराभावादिरूवेण अणेयपयारो । तत्थ तिव्य-मंदभावो णाम
सम्मत्तुप्पत्तीय वि सावयविरदे अणंतकम्मसे । दंसणमोहक्खवए कसायउवसामए य उवसंते ॥ ३ ॥ खवए य खीणमोहे जिणे य णियमा भवे असंखेज्जा ।
तव्विवरीदो कालो संखेज्जगुणाए सेडीए ॥ ४ ॥ अभाव है, इसलिए दोनों निक्षेपोंमें भेद है ही। कहा भी है
विवक्षित वस्तुके प्रति आदरभाव, अनुग्रहभाव और धर्मभाव स्थापनामें किया जाता है । किन्तु ये बातें नामनिक्षेपमें नहीं होती हैं ॥१॥
नाममें धर्मका उपचार करना नामनिक्षेप है, और जहां उस धर्मकी स्थापना की जाती है, वह स्थापनानिक्षेप है। इस प्रकार धर्मके विषयमें भी नाम और स्थापनाकी अविशेषता अर्थात् एकता सिद्ध नहीं होती ॥२॥
इसलिए निक्षेप चार प्रकारका ही है, यह बात सिद्ध हुई। शंका-पूर्वोक्त पांच भावों से यहां किस भावसे प्रयोजन है ?
समाधान-पांचों ही भावोंसे प्रयोजन है, क्योंकि, जीवोंमें पांचों भाव पाये जाते हैं। किन्तु शेष द्रव्योंमें तो पांच भाव नहीं हैं, क्योंकि, पुद्गल द्रव्योंमें औदयिक और परिणामिक, इन दोनों ही भावोंकी उपलब्धि होती है, और धर्मास्तिकाय अधर्मास्तिकाय, आकाश और काल द्रव्योंमें केवल एक पारिणामिक भाव ही पाया जाता है।
शंका-भावनाम जीवके परिणामका है, जो कि तीव्र, मंद निर्जराभाव आदिके रूपसे अनेक प्रकारका है। उनमें तीव मंदभाव नाम है
___ सम्यक्त्वकी उत्पत्तिमें, श्रावकमें, विरतमें, अनन्तानुबन्धी कषायके विसंयोजनमें, दर्शनमोहके क्षपणमें, कषायोंके उपशामकोंमें, उपशान्तकषायमें, क्षपकोंमें, क्षीणमोहमें, और जिन भगवान्में नियमसे असंख्यातगुणीनिर्जरा होती है। किन्तु कालका प्रमाण उक्त गुणश्रेणी निर्जरामें संख्यात गुणश्रेणी क्रमसे विपरीत अर्थात् उत्तरोत्तर हीन है ॥३-४॥
१ नामस्थापनयोरेकत्वं, संज्ञाकर्माविशेषादिति चेन्न, आदरानुग्रहाकांक्षित्वात्स्थापनायाम् । त. रा. वा .१,५. २ गो. जी. ६६-६७.
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