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________________ (३२) षट्खंडागमकी प्रस्तावना पुस्तक ४, पृष्ठ १०० ४ शंका- पृ १०० पर मूल पाठमें कुछ पाठ छूटा हुआ प्रतीत होता है ! ( जैन सन्देश ३०-४-४२ ) समाधान- शंकाकारने यद्यपि पृष्ठका नाममात्र ही दिया है, किन्तु यह स्पष्ट नहीं किया कि उक्त पेजपर २४ वें सूत्रकी व्याख्यामें पाठ छूटा हुआ उन्हें प्रतीत हुआ या २५ वें सूत्रकी व्याख्यामें । जहां तक हमारा अनुमान जाता है २४ वें सूत्रकी व्याख्यामें ' बादरवाउअपज्जत्तेसु अंतब्भावादो' के पूर्व कुछ पाठ उन्हें स्खलित जान पड़ा है । पर न तो उक्त स्थलपर काममें ली जानेवाली तीनों प्रतियों में ही तदतिरिक्त कोई नवीन पाठ है, और न मूडबिद्री से ही कोई संशोधन आया है। फिर मौजूदा पंक्तिका अर्थ भी वहां बैठ जाता है । ● पुस्तक ४, पृ. १३५ ५ शंका - उपशमश्रेणीसे उतरनेवाले उपशमसम्यग्दृष्टि जीवोंके अतिरिक्त अन्य उपशमसम्यग्दृष्टि जीवोंके मरणका निषेध है, इससे यह ध्वनित होता है कि उपशमश्रेणीमें चढ़नेवाले उपशमसम्यग्दृष्टि जीवों का मरण नहीं होता । परन्तु पृष्ठ ३५१ से ३५४ तक कई स्थानों पर स्पष्टता से चढ़ते हुए भी मरण लिखा है, सो क्या कारण है ? ( नानकचन्द्र जैन, खतौली, पत्र ता. १-४ - ४२ ) समाधान- - उक्त पृष्ठपर दी गई शंका-समाधान के अभिप्राय समझने में भ्रम हुआ है । यह शंका-समाधान केवल चतुर्थ गुणस्थानवर्ती उन उपशमसम्यग्दृष्टियोंके लिये है, जो कि उपशमश्रेणीसे उतरकर आये हैं । इसका सीधा अभिप्राय यह है कि सर्वसाधारण उपशमसम्यदृष्टि असंयतों का मरण नहीं होता है । अपवादरूप जिन उपशमसम्यग्दृष्टि असंयतों का मरण होता है उन्हें श्रेणीसे उतरे हुए ही समझना चाहिए । आगे पृ. ३५१ से ३५४ तक कई स्थानोंपर जो श्रेणीपर चढ़ते या उतरते हुए मरण लिखा है, वह उपशामक गुणस्थानों की अपेक्षा लिखा है, न कि असंयतगुणस्थानकी अपेक्षा | पुस्तक ४, पृष्ठ १७४ ६ शंका - पृष्ठ १७४ में ' एक्कम्हि इंदए सेढीबद्ध पद्दण्णए च संट्ठिदगामागार बहुविधबिल- ' नरक में विद्यमान ग्राम, घर और बहुत घर होते हैं ? बिले तो जरूर होते हैं । अर्थात् गांवके समान बहुत प्रकारके बिलों में ' ( जैनसन्देश, ता. २३-४-४२ ) का अर्थ — ' एक ही इन्द्रक, श्रेणीबद्ध या प्रकीर्णक प्रकारके बिलोंमें ' किया है । क्या नरकमें भी ग्राम असल में 'गामागार' का अर्थ ' ग्रामके आकारवाले ऐसा होना चाहिए ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001399
Book TitleShatkhandagama Pustak 05
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages481
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size9 MB
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