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शंका-समाधान आदिकी प्राप्ति होती हैं, वे गुण मिथ्यादृष्टि जीवके संभव नहीं हैं। शंकाकारके द्वारा उठाई गई आपत्तिका परिहार यह है कि तैजसशक्तिकी प्राप्ति के लिये भी उस संयम-विशेषकी आवश्यकता है जो कि मिथ्यादृष्टि जीवके हो नहीं सकता। किन्तु अशुभतैजसका उपयोग प्रमत्तसंयत साधु नहीं करते । जो करते हैं, उन्हें उस समय भावलिंगी साधु नहीं, किन्तु द्रव्यलिंगी समझना चाहिए।
पुस्तक ४, पृष्ठ ४५ २ शंका-विदेहमें संयतराशिका उत्सेध ५०० धनुष लिखा है, सो क्या यह विशेषताकी अपेक्षासे कथने है, या सर्वथा नियम ही है ? (नानकचन्द्र जैन, खतौली, पत्र ता. १-४-४२ )
समाधान-- विदेहमें संयतराशिका ही उत्सेध नहीं, किन्तु वहां उत्पन्न होनेवाले मनुष्यमात्रका उत्सेध पांचसौ धनुष होता है, ऐसा सर्वथा नियम ही है जैसा कि उसी चतुर्थ भागके पृ. ४५ पर आई हुई “ एदाओ दो वि ओगाहणाओ भरह-इरावएसु चेव होति ण विदेहेसु, तत्थ पंचधणुस्सदुस्सेधणियमा " इस तीसरी पंक्तिसे स्पष्ट है। उसी पंक्ति पर तिलोयपण्णत्तीसे दी गई टिप्पणीसे भी उक्त नियमकी पुष्टि होती है । विशेषके लिए देखो तिलोयपण्णत्ती, अधिकार ४, गाथा २२५५ आदि ।
पुस्तक ४, पृष्ठ ७६ ३ शंका- पृष्ठ ७६ में मूलमें ' मारणंतिय' के पहलेका 'मुक्क' शब्द अभी विचारणीय प्रतीत होता है?
(जैनसन्देश, ता. २३-४-४२) समाधान-मूलमें 'मुक्कमारणतियरासी' पाठ आया है, जिसका अर्थ- “किया है मारणान्तिकसमुद्रात जिन्होंने" ऐसा किया है। प्रकरणको देखते हुए यही अर्थ समुचित प्रतीत होता है, जिसकी कि पुष्टि गो. जी. गा. ५४४ (पृ. ९५२) की टीकामें आए हुए. 'क्रियमाणमारणान्तिकदंडस्य'; 'तिर्यग्जीवमुक्तोपपाददंडस्य', तथा, ५४७ वी गाथाकी टीकामें (पृ. ५६७) आये हुए 'अष्टमपृथ्वीसंबंधिबादरपर्याप्तपृथ्वीकायेषु उप्पत्तुं मुक्ततत्समुद्धातदंडानां' आदि पाठोंसे भी होती है। ध्यान देनेकी बात यह है कि द्वितीय व तृतीय उद्धरणमें जिस अर्थमें 'मुक्त' शब्दका प्रयोग हुआ है, प्रथम अवतरणमें उसी अर्थमें ‘क्रियमाण' शब्दका उपयोग हुआ है
और यह कहनेकी आवश्यकता ही नहीं है कि प्राकृत 'मुक्क' शब्दकी संस्कृतच्छाया 'मुक्त' ही होती है । पंडित टोडरमल्लजीने भी उक्त स्थलपर 'मुक्त ' शब्दका यही अर्थ किया है। इस प्रकार 'मुक्क' शब्दके किये गये अर्थमें कोई शंका नहीं रह जाती है।
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