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षटखंडागमकी प्रस्तावना इसमें कोई संदेह नहीं, क्योंकि, उक्त लेखमें वे नयकीर्ति सिद्धान्तचक्रवर्तीके पदभक्त शिष्य कहे गये हैं और उन्होंने नगरजिनालय तथा कमठपार्श्वदेव बस्तिके सन्मुख शिल्लाकुट्टम और रंगशाला निर्माण कराई थी तथा नगर जिनालयको कुछ भूमिका दान भी किया था। मल्लिदेवकी प्रशंसामें इस लेखमें जो एक पद्य आया है वह इस प्रकार है
परमानन्ददिनेन्तु नाकपतिगं पौलोमिगं पुट्टिदों वरसौन्दर्यजयन्तनन्ते तुहिन-क्षीरोद-कल्लोल भासुरकीर्तिप्रियनागदेवविभुगं चन्दब्बेगं पुट्टिदों
स्थिरनीपट्टणसामिविश्वविनुतं श्रीमल्लिदेवाह्वयं ॥ १० ॥ अर्थात् जिस प्रकार इन्द्र और पौलोमी ( इन्द्राणी) के परमानन्द पूर्वक सुन्दर जयन्तकी उत्पत्ति हुई थी, उसी प्रकार तुहिन (वर्फ) तथा क्षीरोदधिकी कल्लोलोंके समान भास्वर कीर्तिके प्रेमी नागदेव विभु और चन्दव्वेसे इन स्थिरबुद्धि विश्वविनुत पट्टणस्वामी मल्लिदेवकी उत्पत्ति हुई।" इससे आगेके पद्यमें कहा गया है कि वे नागदेव क्षितितलपर शोभायमान हैं जिनके बम्मदेव और जोगव्वे माता-पिता तथा पट्टणस्वामी मल्लिदेव पुत्र हैं। यह लेख शक सं. १११८ (ईस्वी १६९६) का है, अतः यही काल पट्टणस्वामी मल्लिदेवका पड़ता है। अभी निश्चयतः तो नहीं कहा जा सकता, किन्तु संभव है कि यही मल्लिदेव हों जिनकी प्रशंसा धवला प्रतिके उपर्युक्त दो पद्योमें की गई है।
३ शंका-समाधान
पुस्तक ४, पृष्ठ ३८ १ शंका-पृष्ठ ३८ पर लिखा है- 'मिच्छाइटिस्स सेस-तिणि विसेसणाणि ण संभवंति, तक्कारणसंजमादिगुणाणमभावादो' यानी तैजससमुद्धात प्रमत्तगुणस्थान पर ही होता है, सो इसमें कुछ शंका होती है । क्या अशुभ तैजस भी इसी गुणस्थान पर होता है ? प्रमत्तगुणस्थान पर ऐसी तीव्र कषाय होना कि सर्वस्व भस्म कर दे और स्वयं भी उससे भस्म हो जाय और नरक तक चला जाय, ऐसा कुछ समझमें नहीं आता !
समाधान- मिथ्यादृष्टिके शेष तीन विशेषण अर्थात् आहारकसमुद्धात, तेजससमुद्धात और केवलिसमुद्धात संभव नहीं हैं, क्योंकि, इनके कारणभूत संयमादि गुणोंका मिथ्यादृष्टिके अभाव है। इस पंक्तिका अर्थ स्पष्ट है कि जिन संयमादि विशिष्ट गुणों के निमित्तसे आहारकऋद्धि
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