________________
२ कन्नड प्रशस्ति
अन्तर-प्ररूपणाके पश्चात् और भाव-प्ररूपणासे पूर्व प्रतियोंमें दो कन्नड पद्योंकी प्रशस्ति पाई जाती है जो इस प्रकार है
पोडवियोळु मल्लिदेवन पडेदर्थवदर्थिजनकवाश्रितजनक । पडेदोडमेयादुदिनी पडेवळनौदार्यदोलवने बणिपुदो ॥ कदुचोद्यवन्नदानं बेडंगुवडेदेसेव जिनगृहगळुवं ता। नेडेवरियदे माडिसुवं
पडेवळनी मल्लिदेवर्नेब विधानं ।। ये दोनों पद्य कन्नड भाषाके कंदवृत्तमें हैं । इनका अनुवाद इस प्रकार है
" इस संसारमें मल्लिदेव द्वारा उपार्जित धन अर्थी और आश्रित जनोंकी सम्पत्ति हो गया। अब सेनापतिकी उदारताका यथार्थ वर्णन किस प्रकार किया जा सकता है?"
" उनका अन्नदान बड़ा आश्चर्यजनक है । ये सेनापति मल्लिदेव नामके विधाता विना किसी स्थानके भेदभावके सुन्दर और महान् जिनगृह निर्माण करा रहे हैं।"
इन पद्योंमें मल्लिदेव नामके एक सेनापतिके दान-धर्मकी प्रशंसा की गई है। उनके विषयमें यहां केवल इतना ही कहा गया है कि वे बड़े दानशील और अनेक जैन मन्दिरोंके निर्माता थे। तेरहवीं शताब्दिके प्रारंभमें मल्लिदेव नामके एक सिन्द-नरेश हुए हैं। उनके एचण नामके मंत्री थे जो जैनधर्म पालते थे और उन्होंने अनेक जैन मन्दिरोंका निर्माण भी कराया था । उनकी पत्नीका नाम सोविलदेवी था । (ए. क. ७, लेख नं. ३१७, ३२० और ३२१).
कर्नाटकके लेखोंमें तेरहवीं शताब्दिके एक मल्लिदेवका भी उल्लेख मिलता है जो होयसलनरेश नरसिंह तृतीयके सेनापति थे। किन्तु इनके विषयमें यह निश्चय नहीं है कि वे जैनधर्मावलम्बी थे या नहीं। श्रवणबेल्गोलके शिलालेख नं. १३० (३३५) में भी एक मल्लिदेवका उल्लेख आया है जो होय्सलनरेश वरिबल्लालके पट्टणस्वामी व सचिव नागदेव और उनकी भार्या चन्दव्वे ( मल्लिसेट्टिकी पुत्री) के पुत्र थे। नागदेव जैनधर्मावलम्बी थे
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org