SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 372
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २८२ ] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, ८, ८९, सव्वत्थोवा वाणवेंतरसासणसम्मादिट्ठी । सम्मामिच्छादिट्ठी संखेज्जगुणा । असंजदसम्मादिट्ठी असंखेज्जगुणा । को गुणगारो ? आवलियाए असंखेजदिभागो । मिच्छादिट्ठी असंखेज्जगुणा । को गुणगारो ? जगपदरस्स असंखेज्जदिभागो, असंखेज्जाओ सेडीओ। केत्तियमेत्ताओ ? सेडीए असंखेज्जदिभागमेत्ताओ। को पडिभागो ? घणंगुलस्स असंखेज्जदिभागो, असंखेज्जपदरंगुलाणि वा पडिभागो । एवं जोदिसियाणं पि वत्तव्वं । सग-सगइत्थिवेदाणं सग-सगोधभंगो । सेसं सुगमं । सोहम्मीसाण जाव सदर-सहस्सारकप्पवासियदेवेसु जहा देवगइ. भंगो ॥ ८९॥ जहा देवोधम्हि अप्पाबहुअं उत्तं, तधा एदेसिमप्पाबहुगं वत्तव्वं । तं जहासव्वत्थोवा सग-सगकप्पत्था सासणा। सग-सगकप्पसम्मामिच्छादिविणो संखेज्जगुणा । सग-सगकप्पअसंजदसम्मादिट्टिणो असंखेज्जगुणा । सग-सगमिच्छादिट्ठी असंखेज्जगुणा । एत्थ गुणगारो जाणिय वत्तव्यो, एगसरूवत्ताभावा । अणंतरउत्तकप्पेसु असंजदसम्ना वानव्यन्तर सासादनसम्यग्दृष्टि देव आगे कही जानेवाली राशियोंकी अपेक्षा सबसे कम हैं । उनसे वानव्यन्तर सम्यग्मिथ्यादृष्टि देव संख्यातगुणित हैं। उनसे वानव्यन्तर असंयतसम्यग्दृष्टि देव असंख्यातगुणित हैं । गुणकार क्या है ? आवलीका असंख्यातवां भाग गुणकार है । वानव्यन्तर असंयतसम्यग्दृष्टि देवोंसे वानव्यन्तर मिथ्यादृष्टि देव असंख्यातगुणित हैं । गुणकार क्या है ? जगप्रतरका असंख्यातवां भाग गुणकार है, जो असंख्यात जगश्रेणीप्रमाण है। वे जगश्रेणियां कितनी हैं ? जगश्रेणीके असंख्यातवें भागमात्र हैं। प्रतिभाग क्या है ? घनांगुलका असंख्यातवां भाग प्रतिभाग है, अथवा असंख्यात प्रतरांगुल प्रतिभाग है। इसी प्रकार ज्योतिष्क देवोंके अल्पबहुत्वको भी कहना चाहिए । भवनवासी आदि निकायों में अपने अपने स्त्रीवेदियोंका अल्पबहुत्व अपने अपने ओघ-अल्पवहुत्वके समान है । शेष सूत्रार्थ सुगम है। सौधर्म-ईशान कल्पसे लेकर शतार-सहस्रार कल्प तक कल्पवासी देवोंमें अल्पबहुत्व देवगति सामान्यके अल्पबहुत्वके समान हैं ।। ८९ ।। जिस प्रकार सामान्य देवोंमें अल्पबहुत्वका कथन किया है, उसी प्रकार इनके अल्पबहुत्वको कहना चाहिए। वह इस प्रकार है- अपने अपने कल्पमें रहनेवाले सासादनसम्यग्दृष्टि देव सबसे कम हैं। इनसे अपने अपने कल्पके सम्यग्मिथ्यादृष्टि देव संख्यातगुणित है। इनसे अपने अपने कल्पके असंयतसम्यग्दृष्टि देव असंख्यातगुणित हैं। इनसे अपने अपने कल्पके मिथ्यादृष्टि देव असंख्यातगुणित हैं । यहांपर गुणकार जानकर कहना चाहिए, क्योंकि, इन देवोंमें गुणकारकी एकरूपताका अभाव है। अभी इन पीछे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001399
Book TitleShatkhandagama Pustak 05
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages481
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy