SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 383
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अप्पा बहुगाणुगमे जोगि- अप्पा बहुगपरूवणं [ २९३ मिच्छादिट्ठी असंखेज्जगुणा, मिच्छादिट्ठी अनंतगुणा ॥११७॥ एत्थ एवं संबंधो कायव्वो । तं जहा - पंचमणजोगि- पंचवचिजोगि असंजदसम्मादिट्ठीहिंतो तेसिं चेव जोगाणं मिच्छादिट्ठी असंखेज्जगुणा । को गुणगारो ? पदरस्स असंखेज्जदिभागो, असंखेज्जाओ सेडीओ । केत्तियमेत्ताओ ? सेडीए असंखेज्जदिभागताओ । को पडिभागो ? घणंगुलस्स असंखेज्जदिभागो, असंखेज्जाणि पदरंगुलाणि । कायजोगि-ओरालियकायजोगिअसं जदसम्मादिट्ठी हिंतो तेसिं चेव जोगाणं मिच्छादिट्ठी अनंतगुणा । को गुणगारो ? अभवसिद्धिएहिं अनंतगुणो, सिद्धेहिं वि अनंतगुणो, अर्णताणि सव्वजीवरासि पढमवग्गमूलाणित्ति । १, ८, ११८. ] असंजद सम्मादिट्टि -संजदासंजद- पमत्तापमत्त संजदाणे सम्मत्तप्पा बहुअमोघं ॥ ११८ ॥ एदेसिं गुणट्ठाणाणं जधा ओघम्हि सम्मत्तप्पाबहुअं उत्तं, तथा एत्थ वि अणूणाहियं वत्तव्यं । उक्त बारह योगवाले असंयत सम्यग्दृष्टियों से ( पांचों मनोयोगी, पांचों वचनयोगी ) मिध्यादृष्टि जीव असंख्यातगुणित हैं, और ( काययोगी तथा औदारिककाययोग) मिथ्यादृष्टि जीव अनन्तगुणित हैं ॥ ११७ ॥ यहांपर इस प्रकार सम्बन्ध करना चाहिए। जैसे- पांचों मनोयोगी और पांचों वचनयोगी असंयतसम्यग्दृष्टियों से उन्हीं योगोंके मिथ्यादृष्टि जीव असंख्यातगुणित हैं । गुणकार क्या है ? जगप्रतरका असंख्यातवां भाग गुणकार है, जो असंख्यात जगश्रेणीप्रमाण है । वे जगश्रेणियां कितनी हैं ? जगश्रेणीके असंख्यातवें भागप्रमाण हैं । प्रतिभाग क्या है ? घनांगुलका असंख्यातवां भाग प्रतिभाग है, जो असंख्यात प्रतरांगुलप्रमाण है । काययोगी और औदारिककाययोगी असंयतसम्यग्दृष्टियों से उन्हीं योगोंके मिथ्यादृष्टि जीव अनन्तगुणित हैं । गुणकार क्या है ? अभव्यसिद्धोंसे अनन्तगुणित और सिद्धोंसे भी अनन्तगुणित राशि गुणकार है, जो सर्व जीवराशिके अनन्त प्रथम वर्गमूलप्रमाण है । उक्त बारह योगवाले जीवोंमें असंयतसम्यग्दृष्टि, संयतासंयत, प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत गुणस्थानमें सम्यक्त्वसम्बन्धी अल्पबहुत्व ओघ के समान है ॥ ११८ ॥ इन सूत्रोक्त चारों गुणस्थानोंका जिस प्रकार ओघमें सम्यक्त्वसम्बन्धी अल्पबहुत्व कहा है, उसी प्रकार यहांपर भी हीनता और अधिकता से रहित अर्थात् तत्प्रमाण ही अल्पबहुत्व कहना चाहिए । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001399
Book TitleShatkhandagama Pustak 05
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages481
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy