SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 301
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १, ७, १८.] भावाणुगमे णेरइयभाव-परूवणं [२११ मोहणीयावयवस्स देसघादिलक्खणस्स उदयादो उप्पण्णसम्मादिहिभावो खओवसमिओ । वेदगसम्मत्तफद्दयाणं खयसण्णा, सम्मत्तपडिबंधणसत्तीए तत्थाभावा । मिच्छत्त-सम्मामिच्छत्ताणमुदयाभावो उवसमो । तेहि दोहि उप्पण्णत्तादो सम्माइट्ठिभावो खइओवसमिओ । खइओ भावो किण्गोवलब्भदे ? ण, विदियादिसु पुढवीसु खइयसम्मादिट्ठीणमुप्पत्तीए अभावा । ओदइएण भावेण पुणो असंजदों ॥ १८ ॥ सम्मादिट्टित्तं दुभावसण्णिदं सोच्चा असंजदभावावगमत्थं पुच्छिदसिस्ससंदेह विशेषार्थ-गति, जाति आदि पिंड-प्रकृतियों से जिस किसी विवक्षित एक प्रकृतिके उदय आने पर अनुदय-प्राप्त शेष प्रकृतियोंका जो उसी प्रकृतिमें संक्रमण होकर उदय आता है, उसे स्तिबुकसंक्रमण कहते हैं। जैसे- एकेन्द्रिय जीवोंके उदय प्राप्त एकेन्द्रिय जातिनामकर्ममें अनुदय प्राप्त द्वीन्द्रिय जाति आदिका संक्रमण होकर उदयमें आना । गति नामकर्म भी पिंड-प्रकृति है। उसके चारों भेदामेसे किसी एकके उदय होनेपर अनुदय-प्राप्त शेष तीनों गतियोंका स्तिबुकसंक्रमणके द्वारा संक्रमण होकर विपाक . होता है । प्रकृतमें यही बात देवगतिको लक्ष्यमें रखकर कही गई है कि देवगति नामकर्मके उद्यकालमें शेष तीनों गतियोंका स्तिबुकसंक्रमणके द्वारा उदय पाया जाता है। दर्शनमोहनीयकर्मकी अवयवस्वरूप और देशघाती लक्षणवाली वेदकसम्यक्त्वप्रकृतिके उदयसे उत्पन्न होनेवाला सम्यग्दृष्टिभाव क्षायोपशमिक कहलाता है । वेदकसम्यक्त्वप्रकृतिके स्पर्धकोंकी क्षय संशा है, क्योंकि, उसमें सम्यग्दर्शनके प्रतिवन्धनकी शक्तिका अभाव है । मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्व, इन दोनों प्रकृतियोंके उदयाभावको उपशम कहते हैं । इस प्रकार उपर्युक्त क्षय और उपशम, इन दोनोंके द्वारा उत्पन्न होनेसे सम्यग्दृष्टिभाव क्षायोपशमिक कहलाता है । शंका--यहां क्षायिक भाव क्यों नहीं पाया जाता ? समाधान नहीं, क्योंकि, द्वितीयादि पृथिवियोंमें क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीवोंकी उत्पत्तिका अभाव है। किन्तु उक्त नारकी असंयतसम्यग्दृष्टियोंका असंयतत्व औदयिक भावसे है ॥१८॥ द्वितीयादि पृथिवियोंके सम्यग्दृष्टित्वको औपशमिक और क्षायोपशमिक, इन दो भावोंसे संयुक्त सुन कर वहां असंयतभावके परिज्ञानार्थ प्रश्न करनेवाले शिष्यके १ असंयतः पुनरौदयिकेन भावेन । स. सि. १, ८. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001399
Book TitleShatkhandagama Pustak 05
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages481
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy