SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 300
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २१०] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, ७, १६. समिओ वा भावो; संजमघादीणं कम्माणमुदएण असंजदो त्ति इच्चेदेहि णिरओघादो विसेसाभावा । विदियाए जाव सत्तमीए पुढवीए णेरइएसु मिच्छाइट्टि-सासणसम्मादिट्ठि-सम्मामिच्छादिट्ठीणमोघं ॥ १६ ॥ सुगममेदं । असंजदसम्मादिट्ठि ति को भावो, उवसमिओ वा खओवसमिओ वा भावो ॥ १७ ॥ तं जहा- देसणमोहणीयस्स उवसमेण उदयाभावलक्खणेण जेणुप्पज्जइ उवसमसम्मादिट्ठी तेण सा ओवसमिया । जदि उदयाभावो वि उबसमो उच्चइ, तो देवत्तं पि ओवसमियं होज्ज, तिण्हं गईणमुदयाभावेण उप्पज्जमाणत्तादो ? ण, तिण्हं गईणं त्थिउक्कसंकमेण उदयस्सुवलंभा, देवगइणामाए उदओवलंभादो वा । वेदगसम्मत्तस्स दंसण औपशमिकभाव भी है, क्षायिकभाव भी है और क्षायोपशमिकभाव भी है, तथा संयमघाती कौके उदयसे असंयत है। इस प्रकार नारकसामान्यकी भावप्ररूपणासे कोई विशेषता नहीं है। द्वितीय पृथिवीसे लेकर सातवीं पृथिवी तक नारकोंमें मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टियोंके भाव ओघके समान हैं ॥१६॥ यह सूत्र सुगम है। उक्त नारकोंमें असंयतसम्यग्दृष्टि यह कौनसा भाव है ? औपशमिक भाव भी है और क्षायोपशमिक भाव भी है ॥ १७॥ चूंकि, दर्शनमोहनीयके उदयाभावलक्षणवाले उपशमके द्वारा उपशमसम्यग्दृष्टि उत्पन्न होती है, इसलिए वह औपशमिक है। शंका-यदि उदयाभावको भी उपशम कहते हैं तो देवपना भी औपशमिक होगा, क्योंकि, वह शेष तीनों गतियोंके उदयाभावसे उत्पन्न होता है ? समाधान नहीं, क्योंकि, वहांपर तीनों गतियोंका स्तिवुकसंक्रमणके द्वारा उदय पाया जाता है, अथवा देवगतिनामकर्मका उदय पाया जाता है, इसलिए देवपर्यायको औपशमिक नहीं कहा जा सकता। १ द्वितीयादिष्वा सप्तम्या मिथ्यादृष्टिसासादनसम्यग्दृष्टिसम्यग्मिथ्यादृष्टीनां सामान्यवत् । स. सि. १,८. २ प्रतिषु 'वा' इति पाठो नास्ति । ३ असंयतसम्यग्दृष्टेगैपशमिको वा क्षायोपशमिको वा भावः । स. सि. १,८. ४ पिंडपगईण जा उदयसंगया तीए अणुदयगयाओ। संकामिऊण वेयइ जं एसो थिबुगसंकामो॥ पं.स., संक्रम., .. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001399
Book TitleShatkhandagama Pustak 05
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages481
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy