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________________ ८] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, ६, ६. गुणेण अच्छिय सव्वे मिच्छत्तं गदा । तिसु वि लोगेसु सासणाणमेगसमए अभावो जादो। पुणो विदियसमए सत्तट्ठ जणा आवलियाए असंखेज्जदिभागमेत्ता पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्ता वा उवसमसम्मादिहिणो आसाणं गदा । लद्धमंतरमेगसमओ । सम्मामिच्छादिहिस्स उच्चदे- सत्तट्ठ जणा बहुआ वा सम्मामिच्छादिट्ठिणो णाणाजीवगदसम्मामिच्छत्तद्धाखएण सम्मत्तं मिच्छत्तं वा सो पडिवण्णा । तिसु वि लोगेसु सम्मामिच्छादिट्ठिणो एगसमयमभावीभूदा । अणंतरसमए मिच्छाइट्ठिणो सम्मादिट्ठिणो वा सत्तट्ठ जणा बहुआ वा सम्मामिच्छत्तं पडिवण्णा । लद्धमंतरमेगसमओ। उक्कस्सेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागों ॥६॥ णिदरिसणं सासणसम्मादिहिस्स ताव उच्चदे- सत्तट्ठ जणा बहुआ वा उवसमसम्मादिट्ठिणो आसाणं गदा। तेहि आसाणेहि आय-व्ययवसेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्तकालं सासणगुणप्पवाहो अविच्छिण्णो कदो। पुणो अणंतरसमए सव्वे मिच्छत्तं रहने पर उपशमसम्यक्त्वको छोड़ा था, उतने ही कालप्रमाण सासादन गुणस्थानमें रह कर वे सब जीव मिथ्यात्वको प्राप्त हुए, और तीनों ही लोकोंमें सासादनसम्यग्दृष्टियोंका एक समयके लिए अभाव हो गया। पुनः द्वितीय समयमें अन्य सात आठ जीव, अथवा आवलीके असंख्यातवें भागमात्र जीव. अथवा पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण उपशमसम्यग्दृष्टि जीव सासादन गुणस्थानको प्राप्त हुए। इस प्रकार सासादन गुणस्थानका एक समयरूप जघन्य अन्तर प्राप्त हो गया। अब सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थानका जघन्य अन्तर कहते हैं- सात आठ जन, अथवा बहुतसे सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीव, नाना जीवगत सम्यग्मिथ्यात्वसम्बन्धी कालके क्षयसे सम्यक्त्वको, अथवा मिथ्यात्वको सभीके सभी प्राप्त हुए और तीनों ही लोकोंमें सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीव एक समयके लिए अभावरूप हो गये । पुनः अनन्तर समयमें ही मिथ्यादृष्टि, अथवा सम्यग्दृष्टि सात आठ जीव, अथवा बहुतसे जीव, सम्यग्मिथ्यात्वको प्राप्त हुए । इस प्रकारसे सम्यग्मिथ्यात्वका एक समयरूप जघन्य अन्तर प्राप्त हो गया । उक्त दोनों गुणस्थानोंका उत्कृष्ट अन्तरकाल पल्योपमके असंख्यातवें भाग है ॥६॥ उनमेंसे पहले सासादनसम्यग्दृष्टिका उदाहरण कहते हैं- सात आठ जन, अथवा बहुतसे उपशमसम्यग्दृष्टि जीव सासादन गुणस्थानको प्राप्त हुए । उन सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंके द्वारा आय और व्ययके क्रमवश पल्योपमके असंख्यातवें भागमात्र काल तक सासादन गुणस्थानका प्रवाह अविच्छिन्न चला । पुनः उसका काल समाप्त होनेपर दूसरे समयमें ही वे सभी जीव मिथ्यात्वको प्राप्त हुए, और पल्योपमके असंख्यातवें भाग. १ उत्कर्षेण पल्योपमासंख्येयभागः। स. सि. १, ८. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001399
Book TitleShatkhandagama Pustak 05
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages481
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size9 MB
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