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________________ १४६ ] छक्खंडागमे जीवाणं [ १, ६, ३०२. जीव उवसमसम्मत्तं पडिवण्णा । सासणं गंतूण विदियसमए मदा मणुसेसु उववण्णा । वरि सत्तमपुढवीए सासणा मिच्छत्तं गंतूण ( ५ ) तिरिक्खे सुववज्र्ज्जति त्ति वत्तव्वं । एवं पंच-चदु-चदुअतो मुहुत्तेहि उणाणि तेत्तीस - सत्तारस - सत्त - सागरोवमाणि किण्हणीलकाउलेस्सियसासणुकस्संतरं होदि । एगसमओ अंतोमुहुत्तव्यंतरे पविट्ठोत्ति पुध ण उत्तो । एवं सम्मामिच्छादिट्ठिस्स वि । णवरि छह अंतोमुहुत्तेहि ऊणाणि तेत्तीस - सत्तारस- सत्तसागरोमाणि किve-णील- काउलेस्सियसम्मामिच्छादिट्टिउक्कस्संतरं । तेउलेस्सिय-पम्मलेस्सिएसु मिच्छादिट्टिअसंजदसम्मादिट्टीणमंतरं केवचिरं कालादो होदि, णाणाजीवं पडुच्च णत्थि अंतरं, णिरंतरं ॥ ३०२ ॥ सुगममेदं । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतोमुहत्तं ॥ ३०३ ॥ तं जहा - चत्तारि जीवा मिच्छादिट्ठि सम्मादिट्टिणो तेउ-पम्मलेस्सिया अण्णगुणं अवशिष्ट रहने पर उपशमसम्यक्त्वको प्राप्त हुए | पश्चात् सासादनगुणस्थानमें जाकर द्वितीय समयमें मरे और मनुष्योंमें उत्पन्न हुए । विशेषता यह है कि सातवीं पृथिवीके सासादनसम्यग्दृष्टि नारकी मिथ्यात्वको प्राप्त होकर ( ५ ) तिर्यचोंमें उत्पन्न होते हैं, ऐसा कहना चाहिए । इस प्रकार पांच, चार और चार अन्तर्मुहूर्तों से कम क्रमशः तेतीस, सत्तरह और सात सागरोपम कालप्रमाण कृष्ण, नील और कापोत लेश्यावाले सासादनसम्यग्दृष्टियोंका उत्कृष्ट अन्तर होता है । सासादनगुणस्थानमें जाकर रहनेका एक समय अन्तर्मुहूर्तके ही भीतर प्रविष्ट है, इसलिए पृथक् नहीं कहा। इसी प्रकार तीनों अशुभलेश्यावाले सम्यग्मिथ्यादृष्टियोंका भी उत्कृष्ट अन्तर जानना चाहिए । विशेषता यह है कि यहांपर छह-छह अन्तर्मुहूतौसे कम तेतीस, सत्तरह और सात सागरोपमकाल क्रमशः कृष्ण, नील और कापोत लेश्यावालोंका उत्कृष्ट अन्तर होता है । तेजोलेश्या और पद्मलेश्यावालोंमें मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि जीवोंका अन्तर कितने काल होता है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर नहीं है, निरन्तर है ॥ ३०२ ॥ यह सूत्र सुगम है। उक्त जीवोंका एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है ॥ ३०३ ॥ जैसे- तेजोलेश्या और पद्मलेश्यावाले मिथ्यादृष्टि और सम्यग्दृष्टि चार जीव १ तेजःपद्मलेश्य योर्मिथ्यादृष्टयसंयत सम्यग्दृष्टयोर्नानाजीवापेक्षया नास्त्यन्तरम् । स. सि. १,८. २ एंकजीवं प्रति जघन्येनान्तर्मुहूर्तः । स. सि. १, ८, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001399
Book TitleShatkhandagama Pustak 05
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages481
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size9 MB
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