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________________ ८८ ] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [ १, ६, १५४. __ सासणसम्मादिट्ठि-सम्मामिच्छादिट्ठीणमंतरं केवचिरं कालादो होदि, णाणाजीवं पडुच्च जहण्णेण एगसमयं ॥ १५४ ॥ सुगममेदं । उक्कस्सेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो ॥ १५५ ॥ ___ कुदो ? दोण्हं रासीणं सांतरत्तादो । सांतरत्ते वि अहियमंतरं किण्ण होदि ? सहावदो। एगजीवं पडुच्च णत्थि अंतरं, णिरंतरं ॥१५६ ॥ कुदो ? गुण-जोगंतरगमणेहि तदसंभवा । चदुण्हमुवसामगाणमंतरं केवचिरं कालादो होदि, णाणाजीवं पडुच्च ओघं ॥१५७ ॥ कुदो ? जहण्णेण एगसमओ, उक्कस्सेण वासपुधत्तमिच्चेएहि ओघादो भेदाभावा । उक्त योगवाले सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टियोंका अन्तर कितने काल होता है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्यसे एक समय अन्तर है ॥ १५४ ॥ यह सूत्र सुगम है। उक्त जीवोंका उत्कृष्ट अन्तर पल्योपमके असंख्यातवें भाग है ॥ १५५ ।। क्योंकि, ये दोनों ही राशियां सान्तर हैं । शंका-राशियोंके सान्तर रहने पर भी अधिक अन्तर क्यों नहीं होता है ? समाधान-स्वभावसे ही अधिक अन्तर नहीं होता है। उक्त जीवोंका एक जीवकी अपेक्षा अन्तर नहीं है, निरन्तर है ॥ १५६ ॥ क्योंकि, अन्य गुणस्थानों और अन्य योगोंमें गमनद्वारा उनका अन्तर असंभव है। उक्त योगवाले चारों उपशामकोंका अन्तर कितने काल होता है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा ओघके समान अन्तर है ॥ १५७ ॥ क्योंकि, जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे वर्षपृथक्त्व अन्तर है, इस प्रकार ओघके अन्तरसे इनके अन्तरमें कोई भेद नहीं है । १ सासादनसम्यग्दृष्टिसम्यग्मिथ्यादृष्टयो नाजीवापेक्षया सामान्यवत् । स. सि. १, ८. २ एकजीवं प्रति नास्त्यन्तरम् । स. सि, १, ८. ३ चतुर्णामुपशमकानां नानाजीवापेक्षया सामान्यवत । स. सि. १, ८. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001399
Book TitleShatkhandagama Pustak 05
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages481
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size9 MB
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