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________________ १, ६, १६१. ] अंतरागमे ओरालिय मिस्सकायजोगि अंतरपरूवणं एगजीवं पडुच्च णत्थि अंतरं, णिरंतरं ॥ १५८॥ जोग - गुणतरगमणेण तदसंभवा । एगजोगपरिणमणकालादो गुणकालो संखेजगुणो ति कथं वदे ? एगजीवस्स अंतराभावपदुप्पायणसुत्तादो । दुहं खवाणमोघं ॥ १५९ ॥ णाणाजीव पडुच्च जहणेण एगसमयं, उक्कस्सेण छम्मासं; एगजीवं पडुच्च णत्थि अंतरमिच्चेदेहि भेदाभावा । ओरालियमिस्स कायजोगीसु मिच्छादिट्टीणमंतरं केवचिरं कालादो होदि, णाणेगजीवं पडुच्च णत्थि अंतरं, निरंतरं ॥ १६० ॥ म्हि जोग - गुणतरसंकंतीए अभावादो । सासणसम्मादिट्टीणमंतरं केवचिरं कालादो होदि, णाणाजीवं पडुच्च ओघं ॥ १६९ ॥ एक जीवकी अपेक्षा अन्तर नहीं है, निरन्तर है ।। १५८ ।। क्योंकि, अन्य योग और अन्य गुणस्थानमें गमनद्वारा उनका अन्तर असंभव है । शंका—एक योगके परिणमन- कालसे गुणस्थानका काल संख्यातगुणा है, यह कैसे जाना जाता है ? समाधान-एक जीवके अन्तरका अभाव बतानेवाले सूत्रसे जाना जाता है कि एक योगके परिवर्तन-कालसे गुणस्थानका काल संख्यातगुणा है । उक्त योगवाले चारों क्षपकोंका अन्तर ओघके समान है ।। १५९ ॥ [ ८९ नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्यसे एक समय, उत्कर्षसे छह मास अन्तर है, तथा एक जीवकी अपेक्षा अन्तर नहीं है; इस प्रकार ओघसे अन्तरमें कोई भेद नहीं है । औदारिकमिश्रकाययोगियोंमें मिथ्यादृष्टि जीवोंका अन्तर कितने काल होता है ? नाना जीव और एक जीवकी अपेक्षा अन्तर नहीं है, निरन्तर है ॥ १६० ॥ क्योंकि, औदारिक मिश्रकाययोगियों में योग और गुणस्थानके परिवर्तनका अभाव है । औदारिकमिश्रकाययोगी सासादन सम्यग्दृष्टियोंका अन्तर कितने काल होता है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर ओघके समान है ॥ १६१ ॥ १ एकजीवं प्रति नास्त्यन्तरम् । स. सि. १, ८. २ चतुर्णा क्षपकाणामयोगकेवलिनां च सामान्यवत् । स. सि. १, ८. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001399
Book TitleShatkhandagama Pustak 05
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages481
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size9 MB
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