SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 221
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अंतराने संजद - अंतरपरूवणं १, ६, २७१. ] वरि समयाहियणवतोमुहुत्ता ऊणा कादव्या । दोहं खवाणमोघं ॥ २६८ ॥ सुगममेदं । परिहारसृद्धिसंजदेसु पमत्तापमत्तसंजदाणमंतरं केवचिरं कालादो होदि, णाणाजीवं पडुच्च णत्थि अंतरं, णिरंतरं ॥ २६९ ॥ ममेदं । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतोमुहुत्तं ॥ २७० ॥ तं जहा- एक्को पत्तो परिहारसुद्धिसंजदो अप्पमत्तो होदूण सव्बलहुँ पमत्तो जादो | मंतरं । एवमप्पमत्तस्स वि पमत्तगुणेण अंतरात्रिय वत्तव्यं । उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं ॥ २७१ ॥ दस्त्थो जधा जहणस्स उत्तो, तथा वत्तव्वो । णवरि सव्वचिरेण कालेण पल्लट्टावेदव्वो । इनका अन्तर एक समय अधिक नौ अन्तर्मुहूर्त कम करना चाहिए । सामायिक और छेदोपस्थापना संयमी अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण, इन दोनों क्षपकों का नाना और एक जीवकी अपेक्षा जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर ओधके समान है ।। २६८ ॥ [ १३१ यह सूत्र सुगम है । परिहारशुद्धिसंयतों में प्रमत्त और अप्रमत्त संयतोंका अन्तर कितने काल होता है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर नहीं है, निरन्तर है ।। २६९ ।। Jain Education International यह सूत्र सुगम है । उक्त जीवोंका एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है ।। २७० ॥ जैसे- परिहारशुद्धिसंयमवाला कोई एक प्रमत्तसंयत जीव अप्रमत्तसंयत होकर सर्वलघु कालसे प्रमत्तसंयत हुआ। इस प्रकार अन्तर लब्ध हो गया। इसी प्रकार परिहारशुद्धिसंयमी अप्रमत्तसंयतको भी प्रमत्तगुणस्थानके द्वारा अन्तरको प्राप्त कराकर अन्तर कहना चाहिए । उक्त जीवोंका एक जीवकी अपेक्षा उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है ।। २७९ ।। इस सूत्र का अर्थ जैसा जघन्य अन्तर बतलाते हुए कहा है, उसी प्रकार से कहना चाहिए | विशेषता यह है कि इसे यहां पर सर्व दीर्घकाल से पलटाना चाहिए । १ द्वयोः क्षपकयोः सामान्यवत् । स. सि. १, ८. २ परिहारशुद्धिसंयतेषु प्रमत्ताप्रमत्तयोर्नानाजीवापेक्षया नास्त्यन्तरम् । स. सि. १, ८, ३ एकजीवं प्रति जघन्यमुत्कृष्टं चान्तर्मुहूर्तः । स. सि. १,८५ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001399
Book TitleShatkhandagama Pustak 05
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages481
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy