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________________ छक्खडागमे जीवाणं एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतोमुहुत्तं ॥ २६६ ॥ तं जहा- एक्को ओदरमाणो अपुव्वो अप्पमत्तो पत्तो पुणो अप्पमत्तो होण अपुच्चो जादो । लद्धमंतरं । एवमणियट्टिस्स वि । णवरि पंच अंतोमुहुत्ता जहण्णंतरं होदि । उक्कस्सेण पुव्वकोडी देणं ॥ २६७ ॥ १३० ] तं जहा- एक्को पुव्वकोडाउएस मणुसेसु उबवण्णो । अट्ठवस्साणमुवरि संजमं पडिवण्णो ( १ ) । पमत्तापमत्तसंजदट्ठाणे सादासादबंधपरावत्तिसहस्सं काढूण (२) उवसमसेडीपाओग्गअप्पमत्तो ( ३ ) अपुच्चो ( ४ ) अणियट्टी (५) सुहुमो (६) उवसंतो (७) पुणो वि सुमो (८) अणियट्टी ( ९ ) अपुव्वो (१०) हेट्ठा पडिय अंतरिदो । पमत्तापमत्तसंजदट्ठाणे पुव्यकोडि मच्छिदूण अणुद्दिसादिसु आउअं बंधिय अंतोमुहुत्तावसेसे जीविए अव्ववसामगो जादो । णिद्दा- पयलाणं बंधे वोच्छिष्णे कालं गदो देवो जादो । अट्ठहि वस्सेहि एक्कारसअंतो मुहुतेहि य ऊणिया पुव्वकोडी अंतरं । एवमणियट्टिस्स वि । सामायिक और छेदोपस्थापनासंयमी दोनों उपशामकोंका एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है ॥ २६६ ॥ [ १, ६, २६६. जैसे- उपशमश्रेणीसे उतरनेवाला एक अपूर्वकरणसंयत, अप्रमत्तसंयत व प्रमत्तसंयत होकर पुनः अप्रमत्तसंयत हो अपूर्वकरणसंयत होगया । इस प्रकार अन्तर लब्ध हुआ । इसी प्रकार अनिवृत्तिकरणसंयतका भी अन्तर कहना चाहिए । विशेषता यह है किं इनके पांच अन्तर्मुहूर्तप्रमाण जघन्य अन्तर होता है । उक्त जीवोंका एक जीवकी अपेक्षा उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम पूर्वकोटी है ॥२६७॥ जैसे - कोई एक जीव पूर्वकोटीकी आयुवाले मनुष्यों में उत्पन्न हुआ और आठ वर्ष पश्चात् संयमको प्राप्त हुआ (१) । पुनः प्रमत्त और अप्रमत्तसंयत गुणस्थानमें साता और असातावेदनीयके सहस्रों बंध- परावर्तनोंको करके (२) उपशमश्रेणीके योग्य अप्रमत्तसंयत हुआ (३)। पश्चात् अपूर्वकरण (४) अनिवृत्तिकरण (५) सूक्ष्मसाम्पराय (६) उपशान्तकषाय ( ७ ) होकर फिर भी सूक्ष्मसाम्पराय (८) अनिवृत्तिकरण (९) अपूर्वकरण (१०) हो नीचे गिरकर अन्तरको प्राप्त हुआ । प्रमत्त और अप्रमत्तसंयत गुणस्थान पूर्वकोटी काल तक रहकर अनुदिश आदि विमानोंमें आयुको बांधकर जीवनके अन्तर्मुहूर्तप्रमाण अवशिष्ट रहनेपर अपूर्वकरण उपशामक हुआ और निद्रा तथा प्रचला प्रकृतियोंके बंधसे व्युच्छिन्न होनेपर मरणको प्राप्त हो देव हुआ । इस प्रकार आठ वर्ष और ग्यारह अन्तर्मुहूतोंसे कम पूर्वकोटीप्रमाण सामायिक और छेदोपस्थापना संयमी अपूर्वकरण उपशामकका उत्कृष्ट अन्तर होता है । इसी प्रकार सामायिक और छेदोपस्थापना संयमी अनिवृत्तिकरण उपशामकका भी उत्कृष्ट अन्तर है । विशेषता यह है कि Jain Education International १ एकजीवं प्रति जघन्येनान्तर्मुहूर्तः । स. सि. १, ८. २ उत्कर्षेण पूर्वकोटी देशोना । स. सि. १,८. For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001399
Book TitleShatkhandagama Pustak 05
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages481
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size9 MB
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