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षट्रखंडागमको प्रस्तावना की गणना किसी संख्यात्मक संज्ञा द्वारा नहीं की जा सकी । यह दृष्टिकोण इस बातसे और भी पुष्ट होता है कि जैन-ग्रंथों में समयके अध्वानका भी निश्चय कर दिया गया है, और इसलिये एक कल्प ( अवसर्पिणी-उत्सर्पिणी ) के कालप्रदेश परिमित ही होना चाहिये, क्योंकि, कल्प स्वयं कोई अनन्त कालमान नहीं है । इस अन्तिम मतके अनुसार जघन्य-परीत-अनन्त, जो कि परिभाषानुसार कल्पके कालप्रदेशोंकी राशिसे अधिक है, परिमित ही है।
जैसा कि ऊपर बताया जा चुका है, एकसे-एककी संगतिकी रीति अनन्त गणनांकोंके अध्ययनके लिये सबसे प्रबल साधन सिद्ध हुई है, और उस सिद्धान्तके अन्वेषण तथा सर्व-प्रथम प्रयोगका श्रेय जैनियोंको ही है।
संख्याओंके उपर्युक्त वर्गीकरणमें मुझे अनन्त गणनांकोंके सिद्धान्तको विकसित करनेका प्राथमिक प्रयत्न दिखाई देता है। किन्तु इस सिद्धान्तमें कुछ गंभीर दोष हैं। ये दोष विरोध उत्पन्न करेंगे । इनमेंसे एक स - १ की संख्याकी कल्पनाका है, जहां स अनन्त है और एक वर्गकी सीमाका नियामक है । इसके विपरीत जैनियोंका यह सिद्धान्त कि एक संख्या स का वर्गित-संवर्गित रूप अर्थात् सस एक नवीन संख्या उत्पन्न कर देता है, युक्तपूर्ण है। यदि यह सच हो कि प्राचीन जैन साहित्यका उत्कृष्ट-असंख्यात अनन्तसे मेल खाता है, तो अनन्तकी संख्याओंकी उत्पत्तिमें आधुनिक अनन्त गणनांकोंके सिद्धान्त ( Theory of infinite cardinals ) का कुछ सीमा तक पूर्वनिरूपण हो गया है । गणितशास्त्रीय विकासके उतने प्राचीन काल और उस प्रारम्भिक स्थितिमें इस प्रकारके किसी भी प्रयत्नकी असफलता अवश्यंभावी थी। आश्चर्य तो यह है कि ऐसा प्रयत्न किया गया था।
अनन्तके अनेक प्रकारोंकी सत्ताको जार्ज केन्टरने उन्नीसवीं शताब्दिके मध्यकालके लगभग प्रयोग-सिद्ध करके दिखाया था। उन्होंने सीमातीत ( transfinite ) संख्याओंका सिद्धांत स्थापित किया। अनन्त राशियोंके क्षेत्र 'domain) के विषयमें कैन्टरके अन्वेषणोंसे गणितशास्त्रके लिये एक पुष्ट आधार, खोजके लिये एक प्रबल साधन और गणितसंबंधी अत्यन्त गूढ विचारोंको ठीक रूपसे व्यक्त करनेके लिये एक भाषा मिल गई है। तो भी यह सीमातीत संख्याओंका सिद्धांत अभी अपनी प्राथमिक अवस्थामें ही है। अभी तक इन संख्याओंका कलन ( Calculus) प्राप्त नहीं हो पाया है, और इसलिये हम उन्हें अभी तक प्रबलतासे गणितशास्त्रीय विश्लेषणमें नहीं उतार सके हैं ।
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