________________
षट्खंडागमकी प्रस्तावना भी आविष्कार किया । विशेषतः जैनियोंने लोकभरके समस्त जीवों, काल-प्रदेशों और क्षेत्र अथवा आकाश-प्रदेशों आदिके प्रमाणका निरूपण करनेका प्रयत्न किया है।
बड़ी संख्यायें व्यक्त करनेके तीन प्रकार उपयोगमें लाये गये
(१) दाशमिक-क्रम ( Place-value notation)- जिसमें दशमानका उपयोग किया गया। इस संबंधमें यह बात उल्लेखनीय है कि दशमानके आधारपर १०१४० जैसी बड़ी संख्याभोंको व्यक्त करनेवाले नाम कल्पित किये गये।
(२) घातांक नियम (Law of indices वर्ग-संवर्ग) का उपयोग बड़ी संख्याओंको सूक्ष्मतासे व्यक्त करनेके लिये किया गया । जैसे
(अ) २ = ४ (ब) (२)* = ४' = २५६
(स) {(२२,२१ । (२) } = २५६२५५ जिसको २ का तृतीय वर्गित-संवर्गित कहा है। यह संख्या समस्त विश्व ( universe) के विद्युत्कणों ( protons and electrons ) की संख्यासे बड़ी है । .
(३) लघुरिक्थ (अर्धच्छेद ) अथवा लघुरिक्थके लघुरिक्थ ( अर्धच्छेदशलाका) का उपयोग बड़ी संख्याओंके विचारको छोटी संख्याओंके विचारमें उतारनेके लिये किया गया। जैसे
(अ) लरि २ २ = २ (ब) लरि , लरि, ४ = ३ (स) लरि २ लरि २ २५६५५ = ११
इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि आज भी संख्याओंको व्यक्त करनेके लिये हम उपर्युक्त तीन प्रकारों से किसी एक प्रकारका उपयोग करते हैं । दाशमिकक्रम समस्त देशोंकी साधारण सम्पत्ति बन गई है । जहां बड़ी संख्याओंका गणित करना पड़ता है, वहां लघुरिक्योंका उपयोग किया जाता है । आधुनिक पदार्थविज्ञानमें परिमाणों (magnitudes) को व्यक्त करनेके
१बड़ी संख्याओं तथा संख्या-नामोंके संबंध विशेष जानने के लिये देखिये दस और सिंह कत हिन्दू गणितशास्त्रका इतिहास (History of Hindu Mathematics ), मोतीलाल बनारसीदास, लाहौर, द्वारा प्रकाशित, भाग १, पृ. ११ आदि.
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org