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________________ [३१५ १, ८, ३५५.] अप्पाबहुगाणुगमे सण्णि-अप्पाबहुगपरूवणं को गुणगारो ? आवलियाए असंखेज्जदिभागो। असंजदसम्मादिहि-संजदासंजद-पमत्त-अप्पमत्तसंजदट्ठाणे उवसमसम्मत्तस्स भेदो णत्थि ॥ ३५३॥ सुगममेदं। सासणसम्मादिट्ठि-सम्मा(मिच्छादिहि)-मिच्छादिट्ठीणंणत्थि अप्पाबहुअं॥३५४ ॥ कुदो ? एगपदत्तादो। ___ एवं सम्मत्तमग्गणा समत्ता । सण्णियाणुवादेण सण्णीसु मिच्छादिटिप्पहुडि जाव खीणकसायवीदरागछदुमत्था त्ति ओघं ॥ ३५५॥ जधा ओघम्हि अप्पाबहुगं परूविदं तधा एत्थ परूवेदव्वं, सण्णित्तं पडि उहयत्थ भेदाभावा । विसेसपदुप्पायणमुत्तरसुत्तं भणदि गुणकार क्या है ? आवलीका असंख्यातवां भाग गुणकार है। उपशमसम्यग्दृष्टियोंमें असंयतसम्यग्दृष्टि, संयतासंयत, प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत गुणस्थानमें उपशमसम्यक्त्वका अल्पबहुत्व नहीं है ॥ ३५३ ॥ यह सूत्र सुगम है। सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और मिथ्यादृष्टि जीवोंका अल्पबहुत्व नहीं है ॥ ३५४ ॥ क्योंकि, तीनों प्रकारके जीवोंके एक गुणस्थानरूप ही पद है। इस प्रकार सम्यक्त्वमार्गणा समाप्त हुई । संज्ञिमार्गणाके अनुवादसे संज्ञियोंमें मिथ्यादृष्टि गुणस्थानसे लेकर क्षीणकपायवीतरागछद्मस्थ गुणस्थान तक जीवोंका अल्पबहुत्व ओघके समान है ॥ ३५५ ॥ जिस प्रकार ओघमें इन गुणस्थानोंका अल्पबहुत्व कहा है, उसी प्रकार यहां पर भी प्ररूपण करना चाहिए, क्योंकि, संज्ञित्वकी अपेक्षा दोनों स्थानोंपर कोई भेद नहीं है । अब संशियोंमें संभव विशेषके प्रतिपादनके लिए उत्तर सूत्र कहते हैं १ शेषाणां नास्त्यल्पबहुत्वम्, विपक्षे एकैकगुणस्थानग्रहणात् । स. सि. १, ८. २ संज्ञानुवादेन संझिनां चक्षुर्दर्शनिबत् । स. सि. १, ८. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001399
Book TitleShatkhandagama Pustak 05
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages481
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size9 MB
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