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________________ ३१६] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, ८, ३५६. णवरि मिच्छादिट्ठी असंखेज्जगुणा ॥३५६॥ ओपमिदि वुत्ते अणंतगुणत्तं पत्तं, तण्णिरायरणटुं असंखेजगुणा इदि उत्तं । गुणगारो पदरस्स असंखेज्जदिभागो, असंखेज्जाओं सेडीओ, सेडीए असंखेज्जदिभागमेत्ताओ। असण्णीसु णत्थि अप्पाबहुअं ॥ ३५७ ॥ कुदो ? एगपदत्तादो। एवं सण्णिमग्गणा समत्ता । आहाराणुवादेण आहारएसु तिसु अद्धासु उवसमा पवेसणेण तुल्ला थोवा ॥ ३५८ ॥ चउवण्णपमाणत्तादो। उवसंतकसायवीदरागछदुमत्था तत्तिया चेव ॥३५९ ॥ सुगममेदं । विशेषता यह है कि संज्ञियोंमें असंयतसम्यग्दृष्टियोंसे मिथ्यादृष्टि जीव असंख्यातगुणित हैं ।। ३५६ ॥ उपर्युक्त सूत्रमें 'ओघ' इस पदके कह देने पर असंयतसम्यग्दृष्टियोंसे संशी मिथ्यादृष्टि जीवोंके अनन्तगुणितता प्राप्त होती थी, उसके निराकरणके लिए इस सूत्रमें 'असंख्यातगुणित हैं ' ऐसा पद कहा है। यहां पर गुणकार जगप्रतरका असंख्यातवां भाग है, जो जगश्रेणीके असंख्यातवें भागमात्र असंख्यात जगश्रेणीप्रमाण है। असंज्ञी जीवोंमें अल्पबहुत्व नहीं है ॥ ३५७ ॥ . . क्योंकि, उनमें एक मिथ्यादृष्टि गुणस्थान ही होता है। __इस प्रकार संशिमार्गणा समाप्त हुई। आहारमार्गणाके अनुवादसे आहारकोंमें अपूर्वकरण आदि तीन गुणस्थानोंमें उपशामक जीव प्रवेशकी अपेक्षा तुल्य और अल्प हैं ॥ ३५८॥ क्योंकि, उनका प्रमाण चौपन है। आहारकोंमें उपशान्तकषायवीतरागछमस्थ जीव पूर्वोक्त प्रमाण ही हैं ॥३५९॥ यह सूत्र सुगम है। १ प्रतिषु 'अणंतरे गुणत्' इति पाठः। २ प्रतिषु ' असंखेज्जदि' इति पाठः। ३ असंशिनां नास्त्यल्पबहुत्वम् । स. सि. १, ८. ४ आहारानुवादेन आहारकाणां काययोगिवत् । स. सि. १,८. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001399
Book TitleShatkhandagama Pustak 05
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages481
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size9 MB
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