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________________ १, ६, १५.] अंतराणुगमे चदुउवसामग-अंतरपरूवणं उवसामगस्स दो सुहुमद्धाओ एगा उवसंतकसायद्धा च जहण्णतरं होदि। सुहुमउवसामगस्स उवसंतकसायद्धा एक्का चेव जहण्णंतरं होदि । उवसंतकसायस्स पुण हेट्ठा उवसंतकसायमोदरिय सुहुमसांपराओ अणियट्टिकरणो अपुवकरणो अप्पमत्तो होदण पमत्तापमत्तपरावत्तसहस्सं करिय अप्पमत्तो अपुग्यो अणियट्टी सुहुमो होदूण पुणो उवसंतकसायगुणट्ठाणं पडिवण्णस्स णवद्धासमूहमेत्तमंतोमुहुत्तमंतरं होदि। उक्कस्सेण अद्धपोग्गलपरियट्टू देसूणं ॥ १५ ॥ अपुधस्स ताव उच्चदे- एक्केण अणादियमिच्छादिट्टिणा तिण्णि करणाणि करिय उवसमसम्मत्तं संजमं च अक्कमेण पडिवण्णपढमसमए अणंतसंसारं छिंदिय अद्धपोग्गलपरियट्टमेत्तं कदेण अप्पमत्तद्धा अंतोमुहुत्तमेत्ता अणुपालिदा (१)। तदो पमत्तो जादो (२)। वेदगसम्मत्तमुवणमिय' (३) पमत्तापमत्तपरावत्तसहस्सं कादण (४) उवसमसेढीपाओग्गो अप्पमत्तो जादो (५)। अपुल्यो (६) अणियट्टी (७) सुहुमो (८) उवसंतकसायो (९) पुणो सुहुमो (१०) अणियट्टी (११) अपुवकरणो जादो (१२)। सम्बन्धी दो अन्तर्मुहूर्तकाल और उपशान्तकषायसम्बन्धी एक अन्तर्मुहूर्तकाल, ये तीनों मिलाकर जघन्य अन्तर होता है । सूक्ष्मसाम्परायिक उपशामकके उपशान्तकषायसम्बन्धी एक अन्तर्मुहूर्तकाल ही जघन्य अन्तर होता है। किन्तु उपशान्तकषाय उपशामकका उपशान्तकषायसे नीचे उतरकर सूक्ष्मसाम्पराय (१) अनिवृत्तिकरण (२) अपूर्वकरण (३) और अप्रमत्तसंयत (४) होकर, प्रमत्त और अप्रमत्त गुणस्थानसम्बन्धी सहस्रों परावर्तनोंको करके (५) पुनः अप्रमत्त (६) अपूर्वकरण (७) अनिवृत्तिकरण (८) और सूक्ष्मसाम्परायिक होकर (९) पुनः उपशान्तकषाय गुणस्थानको प्राप्त हुए जीवकें नौ अद्धाओंका सम्मिलित प्रमाण अन्तर्मुहूर्तकाल अन्तर होता है। उक्त चारों उपशामकोंका एक जीवकी अपेक्षा उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अर्धपुद्गलपरिवर्तन काल है ॥१५॥ इनमेंसे पहले एक जीवकी अपेक्षा अपूर्वकरण गुणस्थानका उत्कृष्ट अन्तर कहते हैं- एक अनादि मिथ्यादृष्टि जीवने तीनों ही करण करके उपशमसम्यक्त्व और संयमको एक साथ प्राप्त होनेके प्रथम समयमें ही अनन्त संसारको छेदकर अर्धपुद्गलपरिवर्तनमात्र करके अन्तर्मुहूर्तप्रमाण अप्रमत्त संयतके कालका अनुपालन किया (१)। पीछे प्रमत्तसंयत हुआ २)। पुनः वेदकसम्यक्त्वको प्राप्त कर (३) सहस्रों प्रमत्त-अप्रमत्त परावर्तनोंको करके (४) उपशमश्रेणीके योग्य अप्रमत्तसंयत होगया (५)। पुनः अपूर्वकरण (६) अनिवृत्तिकरण (७) सूक्ष्मलाम्पराय (८) उपशान्तकषाय (९), पुनः सूक्ष्मसाम्पराय (१०) अनिवृत्तिकरण (११) और पुनः अपूर्वकरण गुणस्थानवर्ती होगया (१२)। पश्चात् नीचे १ उत्कर्षेणार्धपुद्गलपरिवतों देशोनः । स. सि. १,८. २ प्रतिषु ' -मुवसामिय' इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001399
Book TitleShatkhandagama Pustak 05
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages481
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size9 MB
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