SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 108
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ छक्डागमे जीवाणं उक्कस्से वास ॥ १३ ॥ तं जधा - सत्तट्ठ जणा बहुआ वा अपुव्त्रउवसामगा अणियट्टिउवसामगा अप्प - मत्ता वा कालं करिय देवा जादा । अंतरिदमपुव्वगुणट्ठाणं जाव उक्कस्सेण वासपुधत्तं । तदो अदिक्कते वासपुधते सत्तट्ठ जणा बहुआ वा अप्पमत्ता अपुव्वकरणउवसामगा जादा । लद्धमुक्कस्संतरं वासपुधत्तं । एवं चेव सेसतिण्हमुवसामगाणं वासपुधत्तंतरं बत्तव्वं, विसेसाभावा । १८ ] एगजीवं पडुच्च जहणेण अंतोमुहुतं ॥ १४ ॥ तं जधा - एक्को अपुव्यकरणो अणियट्टिउवसामगो सुहुमउवसामगो उवसंतसाओ होण पुणो व सुहुमउवसामगो अणियट्टिउवसामगो होदूण अपुव्व उवसामगो जादो । लद्धमंतरं । एदाओ पंच वि अद्धाओ एक्कट्ठे कदे वि अंतोमुहुत्तमेव होदिति जहणंतरमंतोमुहुत्तं होदि । 1 एवं चेव सेसतिण्हमुवसामगाण मेगजीव जहण्णंतरं वत्तव्वं । णवरि अणियट्टि - उक्त चारों उपशामकोंका उत्कृष्ट अन्तर वर्षपृथकत्व है ।। १३ ।। जैसे - सात आठ जन, अथवा बहुतसे अपूर्वकरण उपशामक जीव, अनिवृत्तिकरण उपशामक अथवा अप्रमत्तसंयत हुए और वे मरण करके देव हुए। इस प्रकार यह अपूर्वकरण उपशामक गुणस्थान उत्कृष्टरूपसे वर्षपृथक्त्वके लिए अन्तरको प्राप्त होगया । तत्पश्चात् वर्षपृथक्त्वकालके व्यतीत होनेपर सात आठ जन, अथवा बहुतसे अप्रमत्तसंयत जीव, अपूर्वकरण उपशामक हुए। इस प्रकार वर्षपृथक्त्व प्रमाण उत्कृष्ट अन्तर प्राप्त होगया । इसी प्रकार अनिवृत्तिकरणादि तीनों उपशामकोंका अन्तर वर्षपृथक्त्व प्रमाण कहना चाहिए, क्योंकि, अपूर्वकरण उपशामक के अन्तरसे तीनों उपशामकोंके अन्तर में कोई विशेषता नहीं है । चारों उपशामकोंका एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है ॥ १४ ॥ जैसे - एक अपूर्वकरण उपशामक जीव, अनिवृत्ति उपशामक, सूक्ष्मसाम्परायिक उपशामक और उपशान्तकषाय उपशामक होकर फिर भी सूक्ष्मसाम्परायिक उपशामक और अनिवृत्तिकरण उपशामक होकर अपूर्वकरण उपशामक होगया । इस प्रकार अन्तमुहूर्तकाल प्रमाण जघन्य अन्तर उपलब्ध हुआ। ये अनिवृत्तिकरण से लगाकर पुनः अपूर्वकरण उपशामक होनेके पूर्व तकके पांचों ही गुणस्थानोंके कालोंको एकत्र करने पर भी वह काल अन्तर्मुहूर्त ही होता है, इसलिए जघन्य अन्तर भी अन्तर्मुहूर्त ही होता है । - इसी प्रकार शेष तीनों उपशामकोंका एक जीवसम्बन्धी जघन्य अन्तर कहना चाहिए । विशेष बात यह है कि अनिवृत्तिकरण उपशामकके सूक्ष्मसाम्परायिक १ उत्कर्षेण वर्षपृथक्त्वम् । स. सि. १,८. २ एक्जीवं प्रति जघन्येनान्तर्मुहूर्तः । स. सि, १, ८. [ १, ६, १३. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001399
Book TitleShatkhandagama Pustak 05
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages481
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy