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१, ६, ३२६.]
अंतराणुगमे सुक्कलेस्सिय- अंतरपरूवणं
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उवसंत कसायवीदरागछदुमत्थाणमंतरं केवचिरं कालादो होदि, णाणाजीव पडुच्च जहण्णेण एगसमयं ॥ ३२३ ॥
सुगममेदं ।
उक्कस्सेण वासपुधत्तं ॥ ३२४ ॥
एदं पि सुगमं ।
एगजीवं पडुच्च णत्थि अंतरं, णिरंतरं ॥ ३२५ ॥
उवसंतादो उवरि उवसंतकसाएण पडिवज्जमाणगुणट्टाणाभावा, हेट्ठा ओदिण्णस्स वि लेस्संतरसंकंतिमंतरेण पुणो उवसंतगुणग्गहणाभावा ।
चदुण्हं खवगा ओघं ॥ ३२६ ॥
शुक्ललेश्यावाले उपशान्तकषायवीतरागछद्मस्थों का अन्तर कितने काल होता है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्यसे एक समय अन्तर है ।। ३२३ ॥
यह सूत्र सुगम है |
उक्त जीवोंका उत्कृष्ट अन्तर वर्षपृथक्त्व है ॥ ३२४ ॥
यह सूत्र भी सुगम I
उक्त जीवोंका एक जीवकी अपेक्षा अन्तर नहीं है, निरन्तर है ॥ ३२५ ॥
क्योंकि, उपशान्तकषाय गुणस्थानसे ऊपर उपशान्तकषायी जीवके द्वारा प्रतिपद्यमान गुणस्थानका अभाव है, तथा नीचे उतरे हुए जीवके भी अन्य लेश्याके संक्रमणके विना पुनः उपशान्तकषाय गुणस्थानका ग्रहण हो नहीं सकता है ।
विशेषार्थ — उपशान्तकषायगुणस्थानके अन्तरका अभाव बतानेका कारण यह है कि ग्यारहवें गुणस्थानसे ऊपर तो वह चढ़ नहीं सकता है, क्योंकि, वहां पर क्षपकोंका ही गमन होता है । और यदि नीचे उतरकर पुनः उपशमश्रेणीपर चढ़े, तो नीचेके गुणस्थानों में शुकुलेश्या से पीत पद्मादि लेश्याका परिवर्तन हो जायगा, क्योंकि, वहां पर एक लेश्याके कालसे गुणस्थानका काल बहुत बताया गया है।
शुक्ललेश्यावाले चारों क्षपकोंका अन्तर ओघके समान है ॥ ३२६ ॥
१ उपशान्तकषायस्य नानाजीवापेक्षया सामान्यवत् । स. सि. १, ८.
२ एकजीवं प्रति नास्त्यन्तरम् । स. सि. १, ८.
४ चतुर्णा क्षपकाणां सयोगकेवलिनामलेश्यानां च सामान्यवत् । स. सि. १, ८.
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३ प्रतिषु ' लेस्संतरं ' इति पाठः ।
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