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छंक्खडागमे जीवद्वाणं
सजोगिकेवली ओधं ॥ ३२७ ॥ दो वि सुत्ताणि सुगमाणि ।
एवं लेस्सामग्गणाः समत्ता ।
भवियाणुवादेण भवसिद्धिएसु मिच्छादिट्टि पहुडि जाव अजोगिकेवलि त्ति ओघं ॥ ३२८ ॥
कुदो ? सव्वपयारेण ओघपरूवणादो भेदाभावा । अभवसिद्धियाणमंतरं केवचिरं कालादो होदि, णाणाजीवं पडुच्च
णत्थि अंतरं, णिरंतरं ॥ ३२९ ॥ कुदो ? अभव्यपवाहवोच्छेदाभावा ।
एगजीवं पडुच्च णत्थि अंतरं, णिरंतरं ॥ ३३० ॥ कुदो ? गुणंतरसंकंतीए तत्थाभावा ।
एवं भवियमग्गणा समत्ता |
[ १, ६, ३२७.
शुक्ललेश्यावाले सयोगिकेवलीका अन्तर ओधके समान है ॥ ३२७ ॥ ये दोनों सूत्र सुगम हैं ।
इस प्रकार लेश्यामार्गणा समाप्त हुई ।
भेद नहीं है ।
भव्यमार्गणाके अनुवाद से भव्यसिद्धिकों में मिथ्यादृष्टिसे लेकर अयोगिकेवली तक प्रत्येक गुणस्थानवर्ती भव्य जीवोंका अन्तर ओघके समान है || ३२८ ॥
क्योंकि, सर्व प्रकार ओघप्ररूपणासे भव्यमार्गणाकी अन्तरप्ररूपणा में कोई
अभव्यसिद्धिक जीवोंका अन्तर कितने काल होता है ! नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर नहीं है, निरन्तर है ॥ ३२९ ॥
क्योंकि, अभव्य जीवोंके प्रवाहका कभी विच्छेद नहीं होता है ।
अभव्य जीवोंका एक जीवकी अपेक्षा अन्तर नहीं है, निरन्तर है ॥ ३३० ॥ क्योंकि, अभव्यों में अन्य गुणस्थानके परिवर्तनका अभाव है । इस प्रकार भव्यमार्गणा समाप्त हुई ।
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१ प्रतिषु ' लेस्समग्गणा ' इति पाठः ।
२ भव्यानुवादेन भव्येषु मिथ्यादृष्ट्याद्ययोग केवल्यन्तानां सामान्यवत् । स. सि. १,८. ३ अभव्यानां नानाजीवापेक्षया एंकजीवापेक्षया च नास्त्यन्तरम् । स. सि. १,८०
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