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________________ १, ८, ३२८.] अप्पाबहुगाणुगमे भविय-अप्पाबहुगपरूवर्ण [३३९ __ संजदासंजद-पमत्त-अप्पमत्तसंजदट्ठाणे सम्मत्तप्पाबहुगमोघं ॥ ३२४॥ जधा एदेसिमोघम्हि सम्मत्तप्पाबहुगं वुत्तं, तहा वत्तव्वं । एवं तिसु अद्धासु ॥ ३२५॥ सव्वत्थोवा उवसमा ॥ ३२६ ॥ खवा संखेज्जगुणा ॥ ३२७ ॥ एदाणि तिण्णि वि सुत्ताणि सुगमाणि । एवं लेस्सामग्गणा' समत्ता । भवियाणुवादेण भवसिद्धिएसु मिच्छाइट्ठी जाव अजोगिकेवाल त्ति ओघं ।। ३२८ ॥ एत्थ ओघअप्पाबहुअं अणूणाहियं वत्तव्यं । .............. शुक्ललेश्यावालोंमें संयतासंयत, प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत गुणस्थानमें सम्यक्त्वसम्बन्धी अल्पबहुत्व ओघके समान है ।। ३२४ ॥ जिस प्रकार इन गुणस्थानोंका ओघमें सम्यक्त्वसम्बन्धी अल्पबहुत्व कहा है, उसी प्रकार यहांपर भी कहना चाहिए। इसी प्रकार शुक्ललेश्यावालोंमें अपूर्वकरण आदि तीन गुणस्थानोंमें सम्यक्त्वसम्बन्धी अल्पबहुत्व है ।। ३२५ ॥ उक्त गुणस्थानोंमें उपशामक जीव सबसे कम हैं ॥ ३२६ ॥ उपशामकोंसे क्षपक जीव संख्यातगुणित हैं ॥ ३२७॥ ये तीनों ही सूत्र सुगम हैं। इस प्रकार लेश्यामार्गणा समाप्त हुई। भव्यमार्गणाके अनुवादसे भव्यसिद्धोंमें मिथ्यादृष्टिसे लेकर अयोगिकेवली गुणस्थान तक जीवोंका अल्पबहुत्व ओघके समान है ॥ ३२८ ॥ यहांपर ओघसम्बन्धी अल्पबहुत्व हीनता और अधिकतासे रहित अर्थात् तस्प्रमाण ही कहना चाहिए। १ अ-आप्रत्योः 'लेस्समग्गणा' इति पाठः। २ भव्यानुवादेन भव्यानां सामान्यवत् । स. सि. १,८. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001399
Book TitleShatkhandagama Pustak 05
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages481
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size9 MB
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